जैन धर्म के पंच महाव्रत
जैन धर्म में पंच महाव्रतो का अति महत्व है । ये पाँचो महाव्रत जैन धर्म का सार है । जैन धर्म के सभी तीर्थंकरो ने धर्म का प्रतिपादन किया । जैन तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव जी ने सर्वप्रथम पंच महाव्रत का प्रतिपादन किया । प्रभु ऋषभदेव जी का धर्म पंच महाव्रत पर आधारित था , क्योकि उस समय धर्म काल के अनुसार यही उपयुक्त था ।
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इसके पश्चात दूसरे तीर्थंकर प्रभु अजितनाथ जी से लेकर २३ वें तीर्थंकर प्रभु पार्श्वनाथ जी ने चतुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया अर्थात् इनके धर्म दर्शन व उपदेशो में प्रमुख रूप से चार महाव्रत हि थे । ये प्रमुख चार महाव्रत थे - सत्य , अहिंसा , अचौर्य और अपरिग्रह ।
इसके बाद शासनकाल आया प्रभु महावीर स्वामी जी का और उन्होने देश , काल और समय आरा व्यवस्था के अनुसार इन चार महाव्रतो में पंचम महाव्रत ब्रह्मचर्य को भी जोड दिया । इस प्रकार से प्रभु महावीर स्वामी जी ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी की तरह पाँच महाव्रतो का उपदेश दिया । अगर कहें तो प्रभु महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोड कर इसे विस्तारित कर दिया । पूर्व की तीर्थंकर परम्परा में भी ब्रह्मचर्य का तत्व था जो कि अपरिग्रह में समाहित था ।
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प्रभु महावीर द्वारा प्रतिपादित पंच महाव्रत निम्न है -:
- सत्य
- अहिंसा
- अचौर्य
- अपरिग्रह
- ब्रह्मचर्य
पंचमहाव्रत - आत्मा को सांसारिक बन्धनों से मुक्त रखने और सत्य की ओर अग्रसर होने के लिए महावीर स्वामी ने जैन भिक्षुक वर्ग के लिए निम्नलिखित पाँच महाव्रतों का कठोरतापूर्वक पालन करना आवश्यक बताया है ।
अहिंसा महाव्रत - जानबूझकर या अनजाने में भी किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करना। इसके अनुसार अनुचित भाषण करना एवं बोलना भी हिंसा की श्रेणी में आता है। अहिंसा का सिद्धांत जैन धर्म की सबसे बडी देन है । अहिंसा का तत्व जैन धर्म के प्राण है । एक जैन साधु/ साध्वी और श्रावक/ श्राविका कठोरता से अंहिसा के सिद्धांत का पालन करते है और आजीवन शाकाहारी जीवन जीते है । जैन धर्म के श्वेताम्बर मुनी जीव रक्षा और अहिंसा के पालन के लिए हि अपने मुख पर मुखवस्त्रिका ( मुंह पट्टी ) का उपयोग करते है । हमारे दिगम्बर मुनिराज सर्दी - गर्मी को समभाव से सहन करते है । अंहिसा का सिद्धांत जैन धर्म का सार है । इसलिए जैन धर्म का प्रसिद्ध नारा " अंहिसा परमो धर्म " है । किसी भी जीवित प्राणी के प्रति दया का भाव उसे किसी भी प्रकार से चोट न पहुंचना अहिंसा है ।
सत्य - असत्य वचन का पूरी तरह से त्याग होना चाहिए और भाषण में मधुरता भी हो। सत्य का सिद्धांत एक साधना है , जो व्यक्ति भी अपने जीवन में सत्य की साधना करता है , वह वचन सिद्ध हो जाता है । सत्य भाषण करने वाले का स्वर्ग में भी सम्मान होता है । जैन धर्म के मुनिराज अनिवार्य रूप से सत्य का भाषण करते है । उनके इस व्रत में कोई दोष न लगे इसलिए वह प्रत्येक कार्य आज्ञा से करते है और अपनी वाणी व व्यवहार में सजग रहते है । अगर उन्हें कोई पाप दोष लगे जाने अनजाने में तो मुनि महाराज प्रत्येक पाप के लिए आलोचना करते है । मिथ्याभाषण के दोष से मुक्ति के लिए प्रायश्चित करते है । झूठ न कहना और सत्य को सत्य कहना हि सत्य धर्म है ।
अस्तेय - जब तक अनुमति न हो किसी की वस्तु ग्रहण नहीं करें और न ही ग्रहण करने की इच्छा करें बिना आझा के किसी के घर में प्रवेश न करें, निवास न करें और गृहस्वामी की आज्ञा के बिना किसी की वस्तु को हाथ न लगावें। सामान्य भाषा में कहें तो चोरी का निषेध हि अस्तेय है । जो वस्तु हमारी नही है उसे ग्रहण करने का भाव न हो अगर चाहिए तो अनुमति लेनी आवश्यक होती है । चोरी का त्याग हि अस्तेय है ।
अपरिग्रह - किसी भी प्रकार का संग्रह नहीं करना, क्योंकि संग्रह से आसक्ति उत्पन्न होती है। इन्द्रिय विषयों में भी पूर्णतया अनाशक्ति भाव होना चाहिए। इसलिए हमारे मुनि महाराज आवश्यक वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ भी संग्रहित नही करते । दिगम्बर मुनि महाराज वस्त्रो को भी परिग्रह मानकर उसका त्याग करते है ।
ब्रह्मचर्य - पार्श्वनाथ भगवान ने उपर्युक्त चार महाव्रत ही बताये थे। भगवान महावीर स्वामी ने ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन और जोड़ दिया। इसके अन्तर्गत किसी नारी से बात न करना। नारी को न देखना, नारी संसर्ग का ध्यान भी न करना, सरल व अल्प भोजन, जहाँ नारी रहती हो वहाँ न रहना, समस्त वासनाओं का त्याग करना आदि बातें सम्मिलित थी। पुरुष के लिए नारी का ध्यान और नारी के लिए पर पुरुष का ध्यान निषिध है । ब्रह्मचर्य के कई भेद होते है और जैन मुनि कठोरता पूर्वक इन सभी नियमों का पालन करते है । हमारे साधु/ साध्वी नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन भी करते है । जिसमें किसी भी प्रकार के श्रृंगार का त्याग होता है । इसलिए साधु/ साध्वी बिना अपनी देह के मोह का त्याग करते हुये अपने केश का त्याग कर देते है । बालो का सौदर्यं भी नही रखते न हि किसी प्रकार की केश सज्जा या ललाट पर चंदन तिलक आदी भी नही होता । जैन मुनी पूर्ण रूप से सजग होकर इस नियम कि पालना करते है । यह नियम सबसे प्रमुख नियम है । इस नियम को धर्म की रीढ़ कहा जाता है ।
पंचाणुव्रत गृहस्थ जैन उपासकों के लिए पाँच अणुव्रतों की व्यवस्था की गयी थी। ये भी महाव्रतों की तरह ही थे लेकिन इन गृहस्थव्रतों की कठोरता काफी कम कर दी गयी थी। ये थे - (अ) अंहिसाणुव्रत (ब) सत्याणुव्रत (स) अस्तेयाणुव्रत (द) अपरिग्रहाणुव्रत (य) ब्रह्मचर्याणुव्रत।
सन्यास मार्ग (निवृत्ति मार्ग) स्वामी महावीर के अनुसार गृहस्थ जीवन में मनुष्य की सांसारिक। इच्छाऐं निरन्तर बनी रहती है। अतः उन्होंने इस भौतिकवादी संसार त्याग कर कठोर तपस्या करने एवं ज्ञान प्राप्त करने की शिक्षा दी है।
पंच महाव्रतो के संदर्भ में प्रभु महावीर का प्रसंग
इन्द्रभूती गौतम कि जिज्ञासा - जैन कहानी
एक समय की बात थी , प्रभु महावीर उपदेश कर रहे थे , तभी जिज्ञासा वश इन्द्रभूती गौतम ने प्रभु महावीर से पूछा - "भगवन् ! आपने जो पाँच महाव्रत बताये है , इन महाव्रतो में सबसे प्रमुख नियम कौनसा है ? क्या अहिंसा का पालन आवश्यक होता है ? क्या ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को भी नर्क हो सकती है ? अगर व्यक्ति सत्य भाषण न करें तो उसके परिणाम क्या होंगें ? क्या सभी महाव्रत एक समान है" ?
गौतम स्वामी जी कि जिज्ञासा जानकर प्रभु महावीर ने उदाहरण के साथ गौतम स्वामी को समझाया । हे गौतम ! तुम मुझे ये बताओ अगर किसी लौटे के पैंदे के मध्य में अगर छेद कर दिया जाये तो क्या वह लौटा पानी में तैर सकता है ? गौतम स्वामी जी ने कहा - नही भगवन् , वह नही तैर सकता क्योकिं पात्र में पानी भर जाने से वह डूब जायेगा ।
इस पर प्रभु महावीर ने कहा अगर पात्र में यही छेद अगर नीचे की दांयी तरफ हो तो क्या होगा ? प्रभु इसका भी वही परिणाम होगा वह नही तैर पायेगा ।
अगर यह छेद बांयी तरफ हो तो क्या होगा ? बांयी तरफ हि क्यों आगे - पीछे कही भी जहां पानी जाने की जगह हो तो क्या होगा ? गौतम स्वामी ने कहा इसका एक हि परिणाम होगा वह तैर नही पायेगा ।
इस पर प्रभु महावीर ने कहा यही है आपके प्रश्नो के उत्तर , जैसे ये पात्र है उसी प्रकार है हमारी आत्मा , अगर एक भी छेद अर्थात् महाव्रत का पालन नही होगा तो पाप आत्मा में जुड जायेंगे और हम डूब जायेंगे जैसे ये पात्र डूबा था । अतः सभी महाव्रत समान है अगर एक भी नियम का पालन नही होगा तो हम इस भवसागर से तर नही सकते ।
क्या ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को भी नर्क हो सकती है ? इसका उत्तर है - हाँ , क्योकि इस नियम के साथ अन्य नियम भी आवश्यक हैं , नही तो पात्र जैसे छेद कही भी हो पात्र तो डूब ही जाता है उसी प्रकार अगर कोई ब्रह्मचर्य का पालन करता है और वह अहिंसा के नियम को नही पालता, सत्य भाषण नही करता तो बताओ उसका कल्याण कैसे होगा ? इस प्रकार तुम्हारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर यही हैं कि पात्र की तरह तुम स्वयं को ऐसा बनाओं कि एक भी छेद शेष न रहे । सभी माहाव्रत समान है और सभी की समान रूप से पालना होनी चाहिए ।
इस प्रकार जैन धर्म में पाँच महाव्रत का उल्लेख किया गया है ।
अगर कोई भी त्रुटी हो तो " तस्स मिच्छामी दुक्कडम ".
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