Atmasiddhi by Shrimad Rajchandra

Abhishek Jain
0

श्रीमद् राजचन्द्र जी गुजराती जैन विद्वान है । श्रीमद् राजचन्द्र जी के बारे में कौन नही जानता , उनका सरल व्यक्तित्व और धर्म ही उनकी पहचान है । ये महात्मा गांधी जी के अध्यात्मिक गुरु माने जाते है । गांधी जी ने जो कुछ भी जैन धर्म से सिखा उसकी नींव श्री मद् राजचन्द्र जी के द्वारा ही रखी गई थी । वे उच्च कोटी के दार्शनिक थे । उनकी दार्शनिकता ' आत्मसिद्धी ' नामक काव्य मे साफ देखी जा सकती है । ' आत्मसिद्धी ' काव्य के 142 दोहे है ।


आत्मसिद्धि - श्रीमद् राजचन्द्र रचित




श्रीमद् राजचन्द्र रचित 'आत्मसिद्धि ' काव्य का मुख्य विषय "आत्मा" है । इस काव्य में उन्होने विस्तार से आत्मा के विषय में चर्चा की है ।

श्री आत्मसिद्धि शास्त्र में 142 गाथाएँ हैं जो बारह खंडों में विभाजित हैं। प्रत्येक श्लोक एक दूसरे से जुड़ता है और पिछले छंद और अगले छंद के साथ संबंध रखता है।

श्री आत्मसिद्धि शास्त्र के 12 खंड निम्नलिखत है -

पहले भाग मे 1 से लेकर 23 तक दोहे है , जिसमे इसका (आत्मा) परिचय दिया गया है ।

दूसरे भाग में 24 से लेकर 33 तक दोहे है , जिसमे आत्मा के गुण बताये है ।

तीसरे भाग में 34 से 42 तक दोहे है , जिसमे आत्म-साक्षात्कार के साधक के गुण बताये है ।

चौथे भाग में 43 व 44 वां दोहा है , जिसमे छह बुनियादी बातों का नामकरण है ।

पाचवें भाग में 45 से 58 तक दोहे है , जिसमे पहला मौलिक - आत्मा मौजूद है ।

छठे भाग में 59 से 70 तक दोहे है , जिसमे दूसरा मौलिक - आत्मा शाश्वत है ।

सातवें भाग में 71 से 78 तक दोहे है , जिसमें तीसरा मौलिक - आत्मा कर्ता है ।

आठवें भाग में 79 से 86 तक दोहे है , जिसमें चौथा मौलिक - आत्मा प्राप्तकर्ता है ।

नौंवें भाग में 87 से 91 तक दोहे है , जिसमें पाँचवाँ मौलिक - मुक्ति है ।

दसवें भाग में 92 से 118 तक दोहे है , जिसमें छठा मौलिक - मुक्ति का मार्ग है ।

ग्यारहवें भाग में 119 से 127 तक दोहें है , जिसमें शिष्य के ज्ञानोदय की अभिव्यक्ति बताई है ।

बारहवें तथा अन्तिम भाग में 128 से 142 तक दोहे है , जो इस आत्मसिद्धी काव्य का निष्कर्ष है ।

ये आत्मसिद्धि शास्त्र अपने आप में गहरी दार्शनिकता रखता है जिसका मूल विषय आत्मा है ।

श्रीमद् राजचन्द्र रचित 'आत्मसिद्धि'

जे स्वरूप समज्या बिना, पाम्यो दुःख अनन्त ।
समजाव्युं ते पद नमुं, श्रीसद्गुरु भगवन्त ॥ १ ॥
वर्तमान आ कालमां मोक्षमार्ग बहु लोप ।
विचारवा आत्मार्थीने भाख्यो अत्र अगोप्य ॥ २॥
कोई क्रियाजड़ थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई ।
माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोई ॥ ३ ॥
बाह्यक्रियामां राचता, अन्तर्भेद न कांई।
ज्ञानमार्ग निषेधता, तेह क्रियाजड़ आंहि॥ ४ ॥
बंध, मोक्ष छे कल्पना, भाखे वाणी मांहि ।
वर्ते मोहावेशमां, शुष्कज्ञानी ते आंहि ॥ ५ ॥
वैराग्यादि सफल तो, जो सह आतमज्ञान ।
तेमज आतमज्ञाननी, प्राप्तितणां निदान ॥ ६ ॥
त्याग विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान ।
अटके त्याग-विरागमां, तो भूले निजभान ॥ ७ ॥
ज्या ज्यां जे जे योग्य छे, त्यां समजवू तेह ।
त्यां त्यां ते ते आचरे आत्मार्थी जन एह ॥ ८ ॥
सेवे सदगुरुचरणने, त्यागी दई निजपक्ष ।
पामे ते परमार्थ ने, निजपदनो ले लक्ष ॥ ९ ॥
आत्मज्ञान, समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग ।
अपूर्ववाणी, परमश्रुत, सद्गुरुलक्षण-योग्य ॥ १० ॥
प्रत्यक्ष सद्गुरुसम नहीं, परोक्ष जिन-उपकार।
एवो लक्ष थया विना, उगे न आत्मविचार ॥११॥
स्दगुरुना उपदेशविण, समजाय न जिनरूप ।
समज्याविण उपकारशो ? समज्ये जिनस्वरूप॥१२॥
आत्मादि-अस्तित्वना, जेह निरूपक शास्त्र ।
प्रत्यक्ष सद्गुरुयोग नहीं, त्यां आधार सुपात्र १३॥
अथवा सदगुरुए कह्या,ज अवगाहन काज।
ते ते नित्य विचारवां, करी मतांतर त्याज ॥१४॥
रोके जीव स्वच्छन्द तो, पामे अवश्य मोक्ष।
पाम्या एम अनन्त छ, भाख्युं जिन निदोष ॥१५॥
प्रत्यक्ष सदगुरुयोगथी, स्वच्छन्द ते रोकाय।
अन्य उपाय कर्या थकी, प्राये बमणो थाय ॥ १६॥
स्वच्छन्द मत आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरु-लक्ष ।
समकित तेने भाखियुं, कारण गणी प्रत्यक्ष ॥ १७ ॥
मानादिक शत्रु महा, निजछंदे न मराय ।
जातां सदगुरुशरणमां, अल्प-प्रयासे जाय ॥१८॥
जे सद्गुरु - उपदेशथी, पाम्यो केवलज्ञान ।
गुरु रह्या छद्मस्थ पण, विनय करे भगवान ॥१९॥
एवो मार्ग विनयतणो, भाख्यो श्रीवीतराग ।
मूल हेतु ए मार्गनो, समझे कोई सुभाग्य ॥ २० ॥
असद्गुरु ए विनयनो, लाभ लहे जो काइ ।
महामोहिनी कर्मथी, बुड़े भवजलमाँहि ॥ २१ ॥
होय मुमुक्षु जीव ते, समजे एह विचार ।
होय मतार्थी जीव ते, अवलो ले निर्धार ॥ २२ ॥
होय मतार्थी तेहने, थाय न आतमलक्ष ।
तेह मतार्थी लक्षणो, अहीं कह्यां निर्पक्ष ॥ २३ ॥
बाह्यत्याग पण ज्ञान नहीं ते माने गुरु सत्य ।
अथवा निजकुल-धर्मना, ते गुरुमां ज ममत्व ॥ २४ ॥
जे जिनदेहप्रमाणने, समवसरणादि सिद्धि ।
वर्णन समजे जिननु, रोकि रहे जिनबुद्धि ॥ २५ ॥
प्रत्यक्ष सदगुरुयोगमां, वर्ते दृष्टिविमुख ।
असद्गुरुने दृढ़ करे, निजमानार्थे मुख्य ॥ २६ ॥
देवादिगति-भंगमां, जे समजे श्रुतज्ञान ।
माने निजमतवेषनो आग्रह मुक्तिनिदान ॥ २७ ॥
लघु स्वरूप न वृत्तिनु, ग्रह्यं व्रत-अभिमान ।
ग्रहे नहीं परमार्थने, लेवा लौकिक मान ॥२८॥
अथवा निश्चयनय आहे, मात्र शब्दनी मांय ।
लोपे सदव्यवहारने, साधनरहित थाय ॥२९॥
ज्ञानदशा पामे नहीं, साधनदशा न कांइ ।
पामे तेनो संग जे, ते बुड़े भवमांहि ॥३०॥
ए पण जीव मतार्थमाँ, निजमानादि काज ।
पामे नहीं परमार्थने, अनअधिकारीमांज ॥३१॥
नहीं कषाय-उपशान्तता, नहीं अन्तर्वैराग्य ।
सरलपणुं न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ॥३२॥
लक्षण कह्यां मतार्थीनां मतार्थ जावा काज ।
हवे कहुँ आत्मार्तीनां, आत्म-अर्थ सुखसाज ॥ ३३ ॥
आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरु होय ।
बाकी कुलगुरुकल्पना, आत्मार्थी नहिं जोय ॥ ३४ ॥
प्रत्यक्ष सद्गुरुप्राप्तिनो, गणे परम उपकार ।
त्रणे योग एकत्वथी, वर्ते आज्ञाधार ॥ ३५ ॥
एक होय त्रण कालमां परमार्थनो पंथ ।
प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत ॥३६॥
एम विचारे अन्तरे, शोधे सद्गुरुयोग ।
काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहीं मन-रोग ॥ ३७॥
कषायनी उपशान्तता, मात्र मोक्ष-अभिलाष ।
भवे खेद, प्राणिदया, त्यां आत्मार्थ-निवास ॥ ३८॥
दशा न एवी ज्या सुधी, जीव लहे नहीं जोग ।
मोक्षमार्ग पामे नहीं, मटे न अन्तरोग ॥ ३९॥
आवे ज्यां एवी दशा, सद्गुरुबोध सुहाय ।
ते बोधे सुविचारणा, त्यां प्रगटे सुखदाय ॥ ४० ॥
ज्यां प्रगटे सुविचारणा, त्यां प्रकटे निजज्ञान ।
ते ज्ञाने क्षय मोह थई, पामे पद निर्वाण ॥४१॥
उपजे ते सुविचारणा, मोक्षमार्ग समजाय ।
गुरु-शिष्य-संवादथी, भाऱ्या षट्पद आंहि ॥ ४२ ॥
'आत्मा छे', 'ते नित्य छे', छे कर्ता निजकर्म ।
छे भोक्ता वली 'मोक्ष छे' 'मोक्ष-उपाय सुधर्म ॥४३॥
षट्स्थानक संक्षेपमा, षट्दर्शन पण तेह ।
समजावा परमार्थने, कह्यां ज्ञानीए एह ॥ ४४ ॥
नथी दृष्टिमां आवतो, नथी जणातुं रूप।
बीजो पण अनुभव नहीं, तेथी न जीवस्वरूप ॥ ४५ ॥
अथवा देह ज आतमा, अथवा इन्द्रिय प्राण।
मिथ्या जूदो मानवो, नहीं जूहूँ एंधाण ।॥ ४६॥
वली जो आत्मा होय तो, जणाय ते नहीं केम ? |
जणाय जो ते होय तो, घट पट आदि जेम || ४७॥
माटे छे नहीं आतमा, मिथ्या मोक्ष-उपाय ।
ए अन्तर शंकातणो, समजावा सदुपाय ॥४८॥
भास्यो देहाध्यास थी, आत्मा देहसमान ।
पण ते बन्ने भिन्न छे, प्रगट लक्षणे भान ॥ ४९॥
भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देहसमान ।
पण ते बन्ने भिन्न छे, जेम असि ने म्यान ॥ ५०॥
जे द्रष्टा छे दृष्टिनो, जे जाणे छे रूप ।
अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीवस्वरूप ॥५१॥
छे इन्द्रिय प्रत्येकने निजनिज विषयनुं ज्ञान ।
पांच इन्द्रियना विषय, पण आत्माने भान ॥५२॥
देह न जाणे तेहने, जाणे न इन्द्रिय प्राण ।
आत्मानी सत्तावड़े, तेह प्रवर्ते जाण ॥५३॥
सर्व अवस्थाने विषे, न्यारो सदा जणाय ।
प्रकटरूप चैतन्यमय, ए एंधाण सदाय ॥५४॥
घट पट आदि जाण तुं, तेथी तेने मान ।
जाणनार ते मान नहीं, कहिये केवू ज्ञान ? ॥ ५५ ॥
परम बुद्धि कृशदेहमा, स्थूलदेह मति अल्प ।
देह होय जो आतमा, घटे न आम विकल्प ॥५६॥
जड़चेतननो भिन्न छे, केवल प्रकट स्वभाव ।
एकपणुं पामे नहीं, त्रणे काल द्वयभाव ॥ ५७ ॥
आत्मानी शंका करे, आत्मा पोते आप ।
शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप ॥५८॥
आत्माना अस्तित्वना आपे कह्या प्रकार ।
संभव तेनो थाय छे, अन्तर कर्ये विचार ॥५९॥
बीजो शंका थाय त्यां, आत्मा नहीं अविनाश।
देहयोगथी ऊपजै, देह-वियोगे नाश ॥६०॥
अथवा वस्तु क्षणिक छे, क्षणे-क्षणे बदलाय ।
ए अनुभवथी पण नहीं, आत्मा नित्य जणाय ॥६१॥
देहमात्र संयोग छे, वली जड़, रूपी, दृष्य ।
चेतनानां उत्पत्ति-लय, कोना अनुभव-वण्य ॥६२॥
जेना अनुभव-वश्य ए, उत्पन्न-लयनुं ज्ञान ।
ते तेथी जूदा विना, थाय न केमें भान ॥ ६३ ॥
जे संयोगो देखिये, ते ते अनुभव दृश्य ।
उपजे नहीं संयोगथी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥ ६४ ॥
जड़थी चेतन ऊपजे, चेतनथी जड़ थाय ।
एवो अनुभव कोई ने, क्यारे कदी न थाय ॥ ६५ ॥
कोई संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय ।
नाश न तेनो कोईमां, तेथी नित्य सदाय ॥६६॥
क्रोधादि तरतम्यता, सादिकनी माय ।
पूर्वजन्मसंस्कार ते, जीवनित्यता त्यांय ॥ ६७॥
आत्मा द्रव्ये नित्य छे, पर्याये पलटाय ।
बालादिवय-त्रणेयर्नु, ज्ञान एकने थाय ॥ ६८ ॥
अथवा ज्ञान क्षणिकनुं जे जाणी वदनार ।
वदनारो ते क्षणिक नहीं, कर अनुभव निर्धार।। ६९ ॥
क्यारे कोई वस्तुनो, केवल होय न नाश ।
चेतन पामे नाश तो, केमां भले तपास ? ॥ ७१॥
कर्ता जीव न कर्मनो, कर्म ज कर्ता कर्म ।
अथवा सहजस्वभाव कां, कर्म जीदनो धर्म ॥ ७१ ॥
आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बन्ध ।
अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबन्ध ॥ ७२॥
माटे मोक्ष - उपायनो, कोई न हेतु जणाय ।
कर्मतणुं कर्तापणुं, कां नहीं, कां नहीं जाय ? ॥ ७३ ॥
होय न चेतन प्रेरणा, कोण आहे तो कर्म ? ।
जड़स्वभाव नहीं प्रेरणा, जुओ विचारी मर्म ॥ ७४ ॥
जो चेतन करतु नथी, थतां नथी तो कर्म
तेथी सहज स्वभाव नहीं, तेमज नहीं जीवधर्म॥७५॥
केवल होत असंग जो, भासत तने न केम ?।
असंग छे परमार्थ थी, पण निजभाने तेम ॥७६॥
कर्ता ईश्वर कोई नहीं, ईश्वर शुद्ध स्वभाव ।
अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोष-प्रभाव ॥ ७७ ॥
चेतन जो निजभानमां, कर्ता आप स्वभाव ।
वर्ते नहीं निजभानमां, कर्ता कर्मप्रभाव ॥७८॥
जीव कर्मकर्ता कहो, पण भोक्ता नहि सोय ।
शुं समजे जड़कर्म के, फलपरिणामी होय ॥ ७९॥
फलदाता ईश्वर गण्ये, भोक्तापणुं सधाय ।
एम कहे ईश्वरतणुं ईश्वरपणुं ज जाय ॥ ८०॥
ईश्वर सिद्ध थया विना,जगत्नियम नहिं होय।
पछी शुभाशुभ-कर्मनां भोग्यस्थान नहीं कोय ॥ ८१ ॥
भावकर्म निजकल्पना, माटे चेतनरूप ।
जीववीर्यनी स्फुरणा, ग्रहण करे जडधूप॥ ८२ ॥
झेर सुधा समजे नहि, जीव खाय, फल थाय ।
एम शुभाशुभकर्मर्नु भोक्तापणुं जणाय ॥ ८३ ॥
एक रांक ने एक नृप, ए आदी जे भेद ।
कारण विना न कार्य ते, ए ज शुभाशुभ वेद्य ॥ ८४ ॥
फलदाता ईश्वरतणी, एमां नथी जरूर ।
कर्मस्वभावे परिणमे, थाय भोगथी दूर ॥ ८५॥
ते ते भोग्यविशेषना स्थानक द्रव्यस्वभाव ।
गहन बात छे शिष्य आ, कही संक्षेप साव ॥८६॥
कर्ता भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहि मोक्ष ।
वीत्यो काल अनन्त पण, वर्तमान छे दोष ॥८७॥
शुभ करे फल भोगवे, देवादि गति मांय ।
अशुभ करे नरकादि फल, कर्म रहित न क्यां॥ ८८ ॥
जेग शुभाशुभकर्मपद, जाण्यां सफल प्रमाण ।
तेम निवृत्तिसफलता, माटे मोक्ष सुजाण ॥ ८९ ॥
वित्यो काल अनन्त ते, कर्म शुभाशुभ भाव ।
तेह शुभाशुभ छेदतां, उपजे मोक्ष स्वभाव ॥ ९० ॥
देहादिक - संयोगनो आत्यन्तिकवियोग ।
सिद्ध मोक्ष शाश्वतपदे, निज अनन्त सुख भोग॥९१॥
होय कदापि मोक्षपद, नहिं अविरोध उपाय ।
कर्मो काल अनन्तनां, शाथी छेद्यां जाय ॥ ९२॥
अथवा मत दर्शन घणां, कहे उपाय अनेक ।
तेमां मत साचो कयो ? बने न एह विवेक ॥ ९३ ॥
कयी जातिमां मोक्ष छे, कया वेषमा मोक्ष ।
एनो निश्चय ना बने, घणा भेद ए दोष ॥९४॥
तेथी एम जणाय छ, मले न मोक्ष-उपाय ।
जीवादी जाण्या तणी, शो उपकार ज थाय?॥९५॥
पांचे उत्तरथी थयु, समाधान सर्वांग ।
समक्षु मोक्ष-उपाय तो, उदय उदय सद्भाग्य॥९६॥
पांचे उत्तरनी थई आत्मा विषे प्रतीत ।
थार्श मोक्षोपायनी, सहज प्रतीत ए रीत ॥९७॥
कर्मभाव अज्ञान छे, मोक्षभाव निजवास।
अंधकार अज्ञानसम, नासे ज्ञानप्रकाश ॥९८॥
जे जे कारण बन्धनां, तेह बन्धनो पंथ ।
ते कारण छेदकदशा मोक्षपंथ भवअंत ॥९९॥
राग, द्वेष, अज्ञान ए, मुख्य कर्मनी ग्रन्थ ।
थाय निवृत्ति जेहथी, ते ज मोक्षनो पंथ ॥१००॥
आत्मा सत् - चैतन्यमय सर्वाभास - रहीत ।
जेथी केवल पामिये, मोक्षपंथ ते रीत ॥१०१॥
कर्म अनन्त प्रकारना, तेमां मुख्ये आठ ।
तेमां मुख्ये मोहनीय, हणाय ते कहुं पाठ ॥१०२॥
कर्म मोहनीय भेद ने, दर्शन, चारित्र नाम ।
हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम ॥१० ३॥
कर्मबन्ध क्रोधादिथी, हणे क्षमादिक तेह ।
प्रत्यक्ष अनुभव सर्वने, एमां शो सन्देह ॥१०४॥
छोड़ी मत दर्शन तणो, आग्रह तेम विकल्प ।
कह्यो मार्ग आ साधणे, जन्म तेहना अल्प ॥१०५॥
षट्पदना षट्प्रश्न ते, पूछ्या करी विचार ।
ते पदवी सर्वांगता, मोक्षमार्ग निरधार ॥१०६॥
जातिवेषनो भेद नहीं, कह्यो मार्ग जो होय ।
साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय ॥१०७॥
कषायनी उपशान्तता, मात्र मोक्ष-अभिलाष ।
भवे खेद अन्तर दया, ते कहिये जिज्ञास ॥१०८॥
ते जिज्ञासु जीव ने, थाय सद्गुरुबोध ।
तो पामे समकितने, वर्ते अन्तरशोध ॥१०९॥
मत-दर्शन - आग्रह तजी, वर्ते, सद्गुरुलक्ष ।
लहे शुद्ध समकित ते, जेमा भेद न पक्ष ॥११०॥
वर्ते निजस्वभावनो अनुभव लक्षप्रतीत।
वृत्ति वहे निजभावमा, परमार्थे समकित ॥१११॥
वर्धमान समकीत थई, टाले मिथ्याभास ।
उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद-वास ॥११२॥
केवल निजस्वभावर्नु अखंड वर्ते ज्ञान ।
कहिये केवलज्ञान ते, देह छतां निर्वाण ॥११३॥
कोटिवर्षनुं स्वप्न पण जाग्रत थतां शमाय ।
तेम विभाव अनादिनो, ज्ञान थतां दूर थाय ।११४॥
छूटे देहाध्यास तो, नहीं कर्ता तुं कर्म ।
नहीं भोवता तुं तेहनो, एज धर्मनो मर्म ॥११॥
एम धर्मथी मोक्ष छे, तुं छे मोक्षस्वरूप ।
अनन्तदर्शन - ज्ञान तुं, अव्याबाधस्वरूप ॥११६॥
शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयं ज्योति सुखधाम ।
बीजूं कहिये केटलुं ? कर विचार तो पाम ॥११७॥
निश्चय सर्वे ज्ञानिनो, भावी अत्र समाय ।
घरी मौनता एम कहि, सहज समाधी मांग ॥११८॥
भद्गुरुना उपदेशथी आयूं अपूर्व पान ।
निजपद निजाही लां, दूर थयु अजान ॥११९॥
भास्यु निजस्वरूप ते, शुद्ध चेतनारूप ।
अजर, अमर, अविनाशी ने देहातीत-स्वरूप १२०॥
कर्ता, भोक्ता कर्मनी, विभाव वर्ते व्याय।
वृत्ति वही निजभावां, थयो अकर्ता त्या य ॥१२१॥
अथवा निज परिणाम जे शुद्धचेतनारूप ।
कर्ता, भोक्त्ता तेहनो, निर्विकल्पस्वरूप ॥१२२॥
मोक्ष कह्यो निजशुद्धता, ते पामे ते पंथ ।
समजाव्यो संक्षेपमा, सकल मार्ग निर्ग्रन्थ ॥१२३॥
अहो ! अहो ! श्रीसद्गुरु करुणासिन्धु अपार ।
आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो! अहो उपकार॥१२४॥
शुं प्रभुचरण कने धंरूं ? आत्माथी सौ हीन ।
ते तो प्रभुए आपियो, वर्तुं चरणाधीन ॥१२५॥
आ देहादी आजथी वर्तो प्रभु - आधीन ।
दास, दास, हुं दास छु; देह प्रभुनो दीन ॥१२६॥
षट्स्थानक समजावि ने, भिन्न बताव्यो आप ।
म्यानथकी तरवारवत्, ए उपकार अमाप ॥१२७॥
दर्शन षटे समाय छे, आ षट्स्थानक मांहि ।
विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न काइ ॥१२८॥
आत्मभ्रान्तिसम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण ।
गुरुआज्ञा-समपथ्य नहि,औषध विचार ध्यान ॥१२९॥
जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थ ।
भयस्थिति आदी नाम लइ, छेदो नहि आत्मार्थ ॥१३०॥
निश्चय वाणी सांभली, साधन तजवां नोय ।
निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय ॥१३१॥
नय निश्चय एकान्तथी, आमां नथी कहेल ।
एकान्ते व्यवहार नहीं, वन्ने साथ रहेल ॥१३२॥
गच्छ-मतनी, जे कल्पना, ते नहि सद्व्यवहार।
भान नहीं निजरूपनुं ते निश्चय नहि सार ॥१३३॥
आगल ज्ञानी थई गया, वर्तमानमा होय ।
थाशे काल भविष्यमां, मार्गभेद नहि कोय ॥१३४॥
सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय ।
सद्गुरु-आज्ञा जिनदशा, निमित्त कारण माय॥१३५॥
उपादाननुं नाम लई, ए जे तजे निमित ।
पामे नहीं सिद्धत्वने, रहे भ्रान्तिमां स्थित ॥१३६॥
मुखथी ज्ञान कथे अने, अन्तर छूट्यो न मोह।
ते पामर प्राणी करे मात्र ज्ञानिनो द्रोह ॥१३७॥
दया, शान्ति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य ।
होय मुमुक्षु घट विषे, एह सदाय सुजाग्य ॥१३८॥
मोहभाव क्षय होय ज्यां, अथवा होय प्रशान्त।
ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी कहिये भ्रान्त ॥१३९॥
सकल जगत् ते एठवत्, अथवा स्वप्न-समान ।
ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी वाचाज्ञान ॥१४०॥
स्थानक पांच विचारी ने, छठे वर्ते जेह ।
पामे स्थानक पांचमुं, एमां नहीं संदेह ॥१४१॥
देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत ।
ते ज्ञानीनां चरणमां, हो वन्दन अगणीत ॥१४२॥

अगर कोई त्रुटी हो तो ' मिच्छामी दुक्कड़म'.

श्रीमद् राजचन्द्र रचित 'आत्मसिद्धि' को श्रद्धा पूर्वक यथा सामायिक के दौरान या कभी भी प्रातः इसका पाठ कर सकते है ।

" जय जिनेन्द्र "

॥ इति ॥

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।

एक टिप्पणी भेजें (0)