श्री मल्लीनाथ जी चालीसा

Abhishek Jain
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जैन धर्म के १९ वें तीर्थंकर श्री मल्लीनाथ जी

श्री मल्लीनाथ जी चालीसा


वन्दूं श्री जिन मल्लिप्रभु , वीतराग सुखकार |

काममल्ल को जीतकर , पद पाया अविकार ||१||

उन्निसवें तीर्थेश के, पद वंदन शत बार |

चालीसा पढकर लहूँ , स्वात्मधाम सुखकार ||२||

-चौपाई-

मल्लिप्रभु यम मल्ल विजेता ,

 मोक्षमार्ग के बन गए नेता ||१||

आत्मा में जब रमण कर लिया, 

शिवलक्ष्मी का वरण कर लिया ||२||

चैत्र सुदी एकम शुभ तिथि में ,

गर्भकल्याणक सुरगण करते ||३||

मगशिर सुदि ग्यारस में प्रभु का,

जन्म हुआ तब त्रिभुवन हरषा ||४||

इन्द्र शची संग हर्ष मनाता, 

मेरु शिखर अभिषेक रचाता ||५||

देव-देवियाँ प्रभु गुण गाते , 

प्रभुवर जन-जन के मन भाते ||६||

मिथिला नगरी धन्य हो गई , 

कुम्भराज पितु मात प्रजावति ||७||

बालपने से यौवन आया, 

फिर भी ब्याह नहीं रचवाया ||८||

जातिस्मरण हुआ जब प्रभु को, 

दीक्षा हेतु चले तब वन को ||९||

देव जयंता पालकि लाए , 

जय जय करते स्तुति गाएं ||१०||

स्वयं प्रभू ने दीक्षा ली थी , 

मगशिर शुक्ला एकम् तिथि थी ||११||

बाल ब्रम्हचारी पद पाया , 

आत्मज्ञान में मन को रमाया ||१२||

घोर तपश्चर्या थे करते , 

केवलज्ञान प्रगट हुआ उनके ||१३||

चार घातिया कर्म विनाशे , 

लोकालोक सभी परकाशे ||१४||

समवसरण की दिव्य सभा थी, 

ऊंकारमय ध्वनी खिरी थी ||१५||

जिन भव्यों ने पान किया था , 

आत्मा का उत्थान किया था ||१६||

बीस हजार हाथ ऊपर था , 

समवसरण वह बना अधर था ||१७||

उसमें ही प्रभु अधर विराजे , 

भव्यों को हितमार्ग बताते ||१८||

आयु रही जब एक मास तब , 

पहुंचे गिरि सम्मेदशिखर पर ||१९||

योग निरोधा कर्म नशाया, 

तत्क्षण सिद्धशिला को पाया ||२०||

वीतराग सर्वज्ञ कहाए , 

इन्द्र मोक्षकल्याण मनाएं ||२१||

चिन्ह कलश से सब जन जानें , 

स्वर्ण वर्णयुत आभा मानें ||२२||

जय जय जय जिनदेव हमारे , 

स्वामी हमको भव से तारें ||२३||

अब मेरे भी कष्ट निवारो , 

मुझको भी भवदधि से तारो |||२४||

सुना बहुत लाखों को तारा , 

कितनों को भव पार उतारा||२५||

इसी हेतु तव शरणा आया , 

दुखों से मन बहु अकुलाया ||२६||

शारीरिक, मानस, 

आगंतुक और आर्थिक कष्ट बहुत हैं ||२७||

विह्वल है संसारी प्राणी, 

सुख खोजे बनता अज्ञानी ||२८||

किन्तु भक्ति जो तेरी करता , 

इन सब दुखों को है हरता||२९||

जो भवि तुमको शीश नवावें,

शिरोरोग आदिक नाश जावें ||३०||

निरखें,वाणि सुनें,स्तुति से,

 नेत्र कर्ण मुख रोग विनशते ||३१||

ध्यान करे जो नित्य तुम्हारा , 

हृदय उदर व्याधी को टारा||३२||

करते जो पंचांग प्रणाम , 

नीरोगी अरु हों निष्काम ||३३||

व्यथा मानसिक सब ही नशती,

 आर्थिक संकट से भी मुक्ती ||३४||

तव भक्ती सब कार्य करेगी, 

कौन सी वस्तु जिसे नहिं देगी ||३५||

व्यथा मेट दो अर्ज किया है , 

मल्लिप्रभू तुम्हें नमन किया है ||३६||

हे बुध ग्रह के कष्टनिवारक , 

तुम ही तरण और हो तारक ||३७||

इस ग्रह की सब पीड़ा हर लो , 

पूर्ण सुखी मुझको तुम कर दो ||३८||

स्वामी तुम बिन कौन खिवैया , 

बीच भंवर में फंसी है नैया ||३९||

एक यही अरदास हमारी , 

जीवन में भर दो उजियारी ||४०||

-शंभु छंद –

प्रभु मल्लिनाथ का चालीसा , जो चालीस दिन तक पढते हैं |

विधिवत जाप्यानुष्ठान करें ,बुधग्रह की बाधा हरते हैं ||

लौकिक वैभव के साथ ‘इंदु’ आध्यात्मिक वैभव मिल जाता |

अंतर में ज्ञान उदित होता, संसार जलधि से तिर जाता ||१||


॥ इति ॥

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