श्री कुंथुनाथ जी चालीसा

Abhishek Jain
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जैन धर्म के १७ वें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ जी का चालीसा

श्री कुंथुनाथ जी चालीसा

दयासिन्धु कुन्थु जिनराज, भवसिन्धु तिरने को जहाज ।
कामदेव… चक्री महाराज, दया करो हम पर भी आज ।
जय श्री कुन्युनाथ गुणखान, परम यशस्वी महिमावान ।
हस्तिनापुर नगरी के भूपति, शूरसेन कुरुवंशी अधिपति ।
महारानी थी श्रीमति उनकी, वर्षा होती थी रतनन की ।
प्रतिपदा बैसाख उजियारी, जन्मे तीर्थकर बलधारी ।
गहन भक्ति अपने उर धारे, हस्तिनापुर आए सुर सारे ।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, गए सुमेरु हर्षित होकर ।
न्हवन करें निर्मल जल लेकर, ताण्डव नृत्य करे भक्वि- भर 1
कुन्थुनाथ नाम शुभ देकर, इन्द्र करें स्तवन मनोहर ।
दिव्य-वस्त्र- भूषण पहनाए, वापिस हस्तिनापुर को आए ।
कम-क्रम से बढे बालेन्दु सम, यौवन शोभा धारे हितकार ।
धनु पैंतालीस उन्नत प्रभु- तन, उत्तम शोभा धारें अनुपम ।
आयु पिंचानवे वर्ष हजार, लक्षण ‘अज’ धारे हितकार ।
राज्याभिषेक हुआ विधिपूर्वक, शासन करें सुनीति पूर्वक ।
चक्ररत्तन शुभ प्राप्त हुआ जब, चक्रवर्ती कहलाए प्रभु तब ।
एक दिन गए प्रभु उपवन मेँ, शान्त मुनि इक देखे मग में ।
इंगिन किया तभी अंगुलिसे, “देखो मुनिको’ -कहा मंत्री से ।
मंत्री ने पूछा जब कारण, “किया मोक्षहित मुनिपद धारण’ ।
कारण करें और स्पष्ट, “मुनिपद से ही कर्म हों नष्ट’ ।
मंत्रो का तो हुआ बहाना, किया वस्तुतः निज कल्याणा ।
चिन विरक्त हुआ विषयों से, तत्व चिन्तन करते भावों से ।
निज सुत को सौंपा सब राज, गए सहेतुक वन जिनराज ।
पंचमुष्टि से कैशलौंचकर, धार लिया पद नगन दिगम्बर ।
तीन दिन बाद गए गजपुर को, धर्ममित्र पड़गाहें प्रभु को ।
मौन रहे सोलह वर्षों तक, सहे शीत-वर्षा और आतप ।
स्थिर हुए तिलक तरु- जल में, मगन हुए निज ध्यान अटल में ।
आतम ने बढ़ गई विशुद्धि, कैवलज्ञान की हो गई सिद्धि ।
सूर्यप्रभा सम सोहें आप्त, दिग्मण्डल शोभा हुई व्याप्त ।
समोशरण रचना सुखकार, ज्ञाननृपित बैठे नर- नार ।
विषय-भोग महा विषमय है, मन को कर देते तन्मय हैं ।
विष से मरते एक जनम में, भोग विषाक्त मरें भव- भव में ।
क्षण भंगुर मानब का जीवन, विद्युतवन विनसे अगले क्षण ।
सान्ध्य ललिमा के सदृश्य ही, यौवन हो जाता अदृश्य ही ।
जब तक आतम बुद्धि नही हो, तब तक दरश विशुद्धि नहीं हौं ।
पहले विजित करो पंचेन्द्रिय, आत्तमबल से बनो जितेन्द्रिय ।
भव्य भारती प्रभु की सुनकर, श्रावकजन आनन्दित को कर ।
श्रद्धा से व्रत धारण करते, शुभ भावों का अर्जन करते ।
शुभायु एक मास रही जब, शैल सम्मेद पे वास किया तब ।
धारा प्रतिमा रोग वहॉ पर, काटा क्रर्मबन्ध्र सब प्रभुवर ।
मोक्षकल्याणक करते सुरगण, कूट ज्ञानधर करते पूजन ।
चक्री… कामदेव… तीर्थंकर, कुंन्धुनाथ थे परम हितंकर ।
चालीसा जो पढे भाव से, स्वयंसिद्ध हों निज स्वभाव से ।
धर्म चक्र के लिए प्रभु ने, चक्र सुदर्शन तज डाला ।
इसी भावना ने अरुणा को, किया ज्ञान में मतवाला ।

॥ इति ॥

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