श्री श्रेयांसनाथ जी चालीसा

Abhishek Jain
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जैन धर्म के 11 वें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ जी का चालीसा

श्री श्रेयांसनाथ जी चालीसा


निज मन में करके स्थापित, पंच परम परमेष्ठी को ।

लिखूं श्रेयांसनाथ चालीसा, मन में बहुत ही हर्षित हो ।।

जय श्रेयांसनाथ श्रुत ज्ञायक हो, जय उत्तम आश्रय दायक हो ।

माँ वेणु पिता विष्णु प्यारे, तुम सिंहपुर में अवतारे ।।

जय ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी प्यारी, शुभ रत्न वृष्टि होती भारी।

जय गर्भकल्यानोत्सव अपार, सब देव करें नाना प्रकार ।।

जय जन्म जयंती प्रभु महान, फाल्गुन एकादशी कृष्ण जान ।

जय जिनवर का जन्माभिषेक, शत अष्ट कलश से करे नेक ।।

शुभ नाम मिला श्रेयांसनाथ, जय सत्य परायण सद्यजात ।

निश्रेयस मार्ग के दर्शायक, जन्मे मति श्रुत अवधि धारक ।।

आयु चौरासी लक्ष प्रमाण, तन तुंग धनुष अस्सी महान ।

प्रभु वर्ण सुवर्ण सम्मान पीत, गए पूरब इक्कीस लक्ष बीत ।।

हुआ ब्याह महा मंगलकारी, सब सुख भोगे आनंदकारी ।

जब हुआ ऋतू का परिवर्तन, वैराग्य हुआ प्रभु को उत्पन्न ।।

दिया राजपाट सूत श्रेयस्कर, तजा मोह त्रिभुवन भास्कर ।

सुर लाए विमलप्रभा शिविका, उद्यान मनोहर नगरी का ।।

वह जा कर केश लोंच कीने, परिग्रह ब्रह्मन्तर तज दिने ।

गए शुद्ध शिला तल पर विराज, ऊपर रहा तुम्बुर वृक्ष साज ।।

किया ध्यान वह स्थिर हॊकर, हुआ ज्ञान मनः पर्यय सत्वर ।

हुए धन्य सिद्धार्थ नगर भूप, दिया पात्र दान जिनने अनूप ।।

महिमा अचिन्त्य हैं पात्र दान, सुर करते पंच अचरज महान ।

वन को तत्काल ही लौट गए, पुरे दो साल वे मौन रहे ।।

आई जब अमावस माघ मास, हुआ केवल ज्ञान सुप्रकाश ।

रचना शुभ समवशरण सुजान, करते धनदेव तुरंत आन ।।

प्रभु की दिव्य ध्वनि होती विकीर्ण, होता कर्मो का बांध क्षीर्ण ।

उत्सर्पिणी अवसर्पिणी विशाल, ऐसे दो भेद बताये काल ।।

एक सौ अड़तालीस बीत जाये, जब हुन्द अवसर्पिणी कहाय ।

सुखमा सुखमा हैं प्रथम काल, जिसमे सब जीव रहे खुशहाल ।।

दूजा दिखलाते सुखमा काल, तीजा सुखमा दुखमा सुकाल ।

चौथा सुखमा दुखमा सुजान, दुखमा हैं पंचम मान ।।

दुखमा दुखमा छट्टम महान, छट्टम छट्टा एक ही समान ।

यह काल परिणति ऐसी ही, होती भरत ऐरावत में ही ।।

रहे क्षेत्र विदेह में विध्यमान, बस काल चतुर्थ ही वर्तमान ।

सुन काल स्वरुप को जान लिया, भविजनो का कल्याण हुआ ।।

हुआ दूर दूर प्रभु का विहार, वह दूर हुआ सब शिथिलाचार ।

फिर गए प्रभु गिरिवर सम्मेद, धरे सुयोग विभु बिना खेद ।।

हुई पूर्णमासी श्रावण शुक्ला, प्रभु को शाश्वत निजरूप मिला ।

पूजे सुर संकुल कूट आन, निर्वाणोत्सव करते महान ।।

प्रभुवर के चरणों का शरणा, जो भविजन लेते सुखदाय ।

उन पर होती प्रभु की करुणा, अरुणा मनवांछित फल पाय ।।


॥ इति ॥

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