श्री शीतलनाथ जी चालीसा

Abhishek Jain
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जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी का चालीसा

श्री शीतलनाथ जी चालीसा


शीतल हैं शीतल वचन, चन्दन से अघिकाय ।

कल्पवृक्ष सम प्रभु चरण, है सबको सुखदाय ।

जय श्री शीतलनाथ गुणाकर, महिमा मण्डित.करुणासागर ।

भद्धिलपुर के दृढ़रथ राय, भूप प्रजावत्सल कहलाए ।

रमणी रत्न सुनन्दा रानी, गर्भ में आए जिनवर ज्ञानी ।

द्वादशी माघ बदी को जन्मे, हर्ष लहर उमडी त्रिभुवन में ।

उत्सव करते देव अनेक, मेरु पर करते अभिषेक ।

नाम दिया शिशु जिन को शीतल, भीष्म ज्वाल अध होती शीतल।

एक लक्ष पूर्वायु प्रभु की, नब्बे धनुष अवगाहना वपु की ।

वर्ण स्वर्ण सम उज्जवलपीत, दया धर्म था उनका मीत ।

निरासक्त थे विषय भोग में, रत रहते थे आत्मयोग मेँ ।

एक दिन गए भ्रमण को वन में, करे प्रकृति दर्शन उपवन भे ।

लगे ओसकण मोती जैसे, लुप्त हुए सब सूर्योदय से ।

देख ह्रदय में हुआ वैराग्य, आतम हित में छोड़ा राग ।

तप करने का निश्चय करते, ब्रह्मार्षि अनुमोदन करते ।

विराजे शुक्रप्रभा शिविका पर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।

संध्या समय ली दीक्षा अक्षुष्ण, चार ज्ञान धारी हुए तत्क्षण ।

दो दिन का व्रत करके इष्ट, प्रथमाहार हुआ नगर अरिष्ट ।

दिया आहार पुनर्वसु नृप ने, पंचाश्चर्य किए देवों ने ।

किया तीन वर्ष तप घोर, शीतलता फैली चहुँ ओर ।

कृष्ण चतुर्दशी पौषविरव्याता, कैवलज्ञानी हुए जगत्राता ।

रचना हुई तब समोशरण की, दिव्य देशना खिरी प्रभु की ।

“आतम हित का मार्ग बताया, शंकित चित समाधान कराया ।

तीन प्रकार आत्मा जानो, बहिरातन-अन्तरातम मानो ।

निश्चय करके निज आतम का, चिन्तन कर लो परमातम का ।

मोह महामद से मोहित जो, परमातम को नहीं मानें वो ।

वे ही भव… भव में भटकाते, वे ही बहिरातम कहलाते ।

पर पदार्थ से ममता तज के, परमात्म में श्रद्धा करके ।

जो नित आतम ध्यान लगाते, वे अन्तर- आतम कहलाते ।

गुण अनन्त के धारी है जो, कर्मों के परिहारी है जो ।

लोक शिखर के वासी है वे, परमात्म अविनाशी हैं वे ।

जिनवाणी पर श्रद्धा धरके, पार उतरते भविजन भव से ।

श्री जिनके इक्यासी गणधर, एक लक्ष थे पूज्य मुनिवर ।

अन्त समय गए सम्मेदाचंल, योग धार कर हो गए निश्चल ।

अश्विन शुक्ल अष्टमी आई, मुक्ति महल पहुंचे जिनराई ।

लक्षण प्रभु का ‘कल्पवृक्ष’ था, त्याग सकल सुख वरा मोक्ष था ।

शीतल चरण-शरण में आओ, कूट विद्युतवर शीश झुकाओ ।

शीतल जिन शीतल करें, सबके भव-आताप ।

हम सब के मन में बसे, हरे’ सकलं सन्ताप ।


॥ इति ॥

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