जैन धर्म में रुद्र कौन होते है ?
जैन धर्म के अनुसार रुद्र प्रारम्भं में पवित्र आत्मा होती है , जो बाद में पथभष्ट्र होकर नरकगामी बनती है । जैन धर्म में 11 रुद्रो का वर्णन मिलता है ।
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जैन धर्म में जिन दीक्षा लेने के उपरान्त कर्म के तीव्र उदय से विषय-वासना वश संयम से भ्रष्ट होकर रौद्र कार्य करने वाले को रुद्र कहते हैं । इन्हें 11 अंगों का ज्ञान हो जाता है । लेकिन ये दसवें पूर्व (विद्यानुवाद) का अध्ययन करते समय विद्याओं को ग्रहण करने के निमित्त से तप से भ्रष्ट होकर मिथ्यात्व को ग्रहण कर नरक गामी होते हैं। ये दस पूर्वो का अध्ययन करते है ।
इनके नाम हैं :-
1 भीमावलि ( भगवान ऋषभदेव जी के समय में )
2 जितशत्रु ( प्रभु अजितनाथ जी के समय में )
3 रुद्र ( प्रभु सुवधिनाथ जी के समय में )
4 वैश्वानर ( प्रभु शीतलनाथ जी के समय में )
5 सुप्रतिष्ठत ( प्रभु श्रेयांसनाथ जी के समय में )
6 अचल ( प्रभु वासुपुज्यजी के समय में )
7 पुंडरीक ( प्रभु विमलनाथ जी के समय में )
8. अजितंधर ( प्रभु अनंतनाथ जी के समय में )
9 अजितनाभि ( प्रभु धर्मनाथ जी के समय में )
10 पीठ ( प्रभु शांतिनाथ जी के समय में )
11 सात्यकि पुत्र ( भगवान महावीर के समय में )
इस प्रकार से जैन धर्म में इन ग्यारह रुद्रो का वर्णन आता है । ये जीव असंयमी होते है तथा नरक की आयुष का बंधन करते है ।
अगर कोई त्रुटि हुई हो तो " तस्स मिच्छामि दुक्कडम ".
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