अथवा देह ज आतमा, अथवा इन्द्रिय प्राण।
मिथ्या जूदो मानवो, नहीं जूहूँ एंधाण ।॥ ४६॥
वली जो आत्मा होय तो, जणाय ते नहीं केम ? |
जणाय जो ते होय तो, घट पट आदि जेम || ४७॥
माटे छे नहीं आतमा, मिथ्या मोक्ष-उपाय ।
ए अन्तर शंकातणो, समजावा सदुपाय ॥४८॥
भास्यो देहाध्यास थी, आत्मा देहसमान ।
पण ते बन्ने भिन्न छे, प्रगट लक्षणे भान ॥ ४९॥
भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देहसमान ।
पण ते बन्ने भिन्न छे, जेम असि ने म्यान ॥ ५०॥
जे द्रष्टा छे दृष्टिनो, जे जाणे छे रूप ।
अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीवस्वरूप ॥५१॥
छे इन्द्रिय प्रत्येकने निजनिज विषयनुं ज्ञान ।
पांच इन्द्रियना विषय, पण आत्माने भान ॥५२॥
देह न जाणे तेहने, जाणे न इन्द्रिय प्राण ।
आत्मानी सत्तावड़े, तेह प्रवर्ते जाण ॥५३॥
सर्व अवस्थाने विषे, न्यारो सदा जणाय ।
प्रकटरूप चैतन्यमय, ए एंधाण सदाय ॥५४॥
घट पट आदि जाण तुं, तेथी तेने मान ।
जाणनार ते मान नहीं, कहिये केवू ज्ञान ? ॥ ५५ ॥
परम बुद्धि कृशदेहमा, स्थूलदेह मति अल्प ।
देह होय जो आतमा, घटे न आम विकल्प ॥५६॥
जड़चेतननो भिन्न छे, केवल प्रकट स्वभाव ।
एकपणुं पामे नहीं, त्रणे काल द्वयभाव ॥ ५७ ॥
आत्मानी शंका करे, आत्मा पोते आप ।
शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप ॥५८॥
आत्माना अस्तित्वना आपे कह्या प्रकार ।
संभव तेनो थाय छे, अन्तर कर्ये विचार ॥५९॥
बीजो शंका थाय त्यां, आत्मा नहीं अविनाश।
देहयोगथी ऊपजै, देह-वियोगे नाश ॥६०॥
अथवा वस्तु क्षणिक छे, क्षणे-क्षणे बदलाय ।
ए अनुभवथी पण नहीं, आत्मा नित्य जणाय ॥६१॥
देहमात्र संयोग छे, वली जड़, रूपी, दृष्य ।
चेतनानां उत्पत्ति-लय, कोना अनुभव-वण्य ॥६२॥
जेना अनुभव-वश्य ए, उत्पन्न-लयनुं ज्ञान ।
ते तेथी जूदा विना, थाय न केमें भान ॥ ६३ ॥
जे संयोगो देखिये, ते ते अनुभव दृश्य ।
उपजे नहीं संयोगथी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥ ६४ ॥
जड़थी चेतन ऊपजे, चेतनथी जड़ थाय ।
एवो अनुभव कोई ने, क्यारे कदी न थाय ॥ ६५ ॥
कोई संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय ।
नाश न तेनो कोईमां, तेथी नित्य सदाय ॥६६॥
क्रोधादि तरतम्यता, सादिकनी माय ।
पूर्वजन्मसंस्कार ते, जीवनित्यता त्यांय ॥ ६७॥
आत्मा द्रव्ये नित्य छे, पर्याये पलटाय ।
बालादिवय-त्रणेयर्नु, ज्ञान एकने थाय ॥ ६८ ॥
अथवा ज्ञान क्षणिकनुं जे जाणी वदनार ।
वदनारो ते क्षणिक नहीं, कर अनुभव निर्धार।। ६९ ॥
क्यारे कोई वस्तुनो, केवल होय न नाश ।
चेतन पामे नाश तो, केमां भले तपास? ॥ ७१॥
कर्ता जीव न कर्मनो, कर्म ज कर्ता कर्म ।
अथवा सहजस्वभाव कां, कर्म जीदनो धर्म ॥ ७१ ॥
आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बन्ध ।
अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबन्ध ॥ ७२॥
माटे मोक्ष - उपायनो, कोई न हेतु जणाय ।
कर्मतणुं कर्तापणुं, कां नहीं, कां नहीं जाय ? ॥ ७३ ॥
होय न चेतन प्रेरणा, कोण आहे तो कर्म ? ।
जड़स्वभाव नहीं प्रेरणा, जुओ विचारी मर्म ॥ ७४ ॥
जो चेतन करतु नथी, थतां नथी तो कर्म
तेथी सहज स्वभाव नहीं, तेमज नहीं जीवधर्म॥७५॥
केवल होत असंग जो, भासत तने न केम ?।
असंग छे परमार्थ थी, पण निजभाने तेम ॥७६॥
कर्ता ईश्वर कोई नहीं, ईश्वर शुद्ध स्वभाव ।
अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोष-प्रभाव ॥ ७७ ॥
चेतन जो निजभानमां, कर्ता आप स्वभाव ।
वर्ते नहीं निजभानमां, कर्ता कर्मप्रभाव ॥७८॥
जीव कर्मकर्ता कहो, पण भोक्ता नहि सोय ।
शुं समजे जड़कर्म के, फलपरिणामी होय ॥ ७९॥
फलदाता ईश्वर गण्ये, भोक्तापणुं सधाय ।
एम कहे ईश्वरतणुं ईश्वरपणुं ज जाय ॥ ८०॥
ईश्वर सिद्ध थया विना,जगत्नियम नहिं होय।
पछी शुभाशुभ-कर्मनां भोग्यस्थान नहीं कोय ॥ ८१ ॥
भावकर्म निजकल्पना, माटे चेतनरूप ।
जीववीर्यनी स्फुरणा, ग्रहण करे जडधूप॥ ८२ ॥
झेर सुधा समजे नहि, जीव खाय, फल थाय ।
एम शुभाशुभकर्मर्नु भोक्तापणुं जणाय ॥ ८३ ॥
एक रांक ने एक नृप, ए आदी जे भेद ।
कारण विना न कार्य ते, ए ज शुभाशुभ वेद्य ॥ ८४ ॥
फलदाता ईश्वरतणी, एमां नथी जरूर ।
कर्मस्वभावे परिणमे, थाय भोगथी दूर ॥ ८५॥
ते ते भोग्यविशेषना स्थानक द्रव्यस्वभाव ।
गहन बात छे शिष्य आ, कही संक्षेप साव ॥८६॥
कर्ता भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहि मोक्ष ।
वीत्यो काल अनन्त पण, वर्तमान छे दोष ॥८७॥
शुभ करे फल भोगवे, देवादि गति मांय ।
अशुभ करे नरकादि फल, कर्म रहित न क्यां॥ ८८ ॥
जेग शुभाशुभकर्मपद, जाण्यां सफल प्रमाण ।
तेम निवृत्तिसफलता, माटे मोक्ष सुजाण ॥ ८९ ॥
वित्यो काल अनन्त ते, कर्म शुभाशुभ भाव ।
तेह शुभाशुभ छेदतां, उपजे मोक्ष स्वभाव ॥ ९० ॥
देहादिक - संयोगनो आत्यन्तिकवियोग ।
सिद्ध मोक्ष शाश्वतपदे, निज अनन्त सुख भोग॥९१॥
होय कदापि मोक्षपद, नहिं अविरोध उपाय ।
कर्मो काल अनन्तनां, शाथी छेद्यां जाय ॥ ९२॥
अथवा मत दर्शन घणां, कहे उपाय अनेक ।
तेमां मत साचो कयो ? बने न एह विवेक ॥ ९३ ॥
कयी जातिमां मोक्ष छे, कया वेषमा मोक्ष ।
एनो निश्चय ना बने, घणा भेद ए दोष ॥९४॥
तेथी एम जणाय छ, मले न मोक्ष-उपाय ।
जीवादी जाण्या तणी, शो उपकार ज थाय?॥९५॥
पांचे उत्तरथी थयु, समाधान सर्वांग ।
समक्षु मोक्ष-उपाय तो, उदय उदय सद्भाग्य॥९६॥
पांचे उत्तरनी थई आत्मा विषे प्रतीत ।
थार्श मोक्षोपायनी, सहज प्रतीत ए रीत ॥९७॥
कर्मभाव अज्ञान छे, मोक्षभाव निजवास।
अंधकार अज्ञानसम, नासे ज्ञानप्रकाश ॥९८॥
जे जे कारण बन्धनां, तेह बन्धनो पंथ ।
ते कारण छेदकदशा मोक्षपंथ भवअंत ॥९९॥
राग, द्वेष, अज्ञान ए, मुख्य कर्मनी ग्रन्थ ।
थाय निवृत्ति जेहथी, ते ज मोक्षनो पंथ ॥१००॥
आत्मा सत् - चैतन्यमय सर्वाभास - रहीत ।
जेथी केवल पामिये, मोक्षपंथ ते रीत ॥१०१॥
कर्म अनन्त प्रकारना, तेमां मुख्ये आठ ।
तेमां मुख्ये मोहनीय, हणाय ते कहुं पाठ ॥१०२॥
कर्म मोहनीय भेद ने, दर्शन, चारित्र नाम ।
हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम ॥१० ३॥
कर्मबन्ध क्रोधादिथी, हणे क्षमादिक तेह ।
प्रत्यक्ष अनुभव सर्वने, एमां शो सन्देह ॥१०४॥
छोड़ी मत दर्शन तणो, आग्रह तेम विकल्प ।
कह्यो मार्ग आ साधणे, जन्म तेहना अल्प ॥१०५॥
षट्पदना षट्प्रश्न ते, पूछ्या करी विचार ।
ते पदवी सर्वांगता, मोक्षमार्ग निरधार ॥१०६॥
जातिवेषनो भेद नहीं, कह्यो मार्ग जो होय ।
साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय ॥१०७॥
कषायनी उपशान्तता, मात्र मोक्ष-अभिलाष ।
भवे खेद अन्तर दया, ते कहिये जिज्ञास ॥१०८॥
ते जिज्ञासु जीव ने, थाय सद्गुरुबोध ।
तो पामे समकितने, वर्ते अन्तरशोध ॥१०९॥
मत-दर्शन - आग्रह तजी, वर्ते, सद्गुरुलक्ष ।
लहे शुद्ध समकित ते, जेमा भेद न पक्ष ॥११०॥
वर्ते निजस्वभावनो अनुभव लक्षप्रतीत।
वृत्ति वहे निजभावमा, परमार्थे समकित ॥१११॥
वर्धमान समकीत थई, टाले मिथ्याभास ।
उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद-वास ॥११२॥
केवल निजस्वभावर्नु अखंड वर्ते ज्ञान ।
कहिये केवलज्ञान ते, देह छतां निर्वाण ॥११३॥
कोटिवर्षनुं स्वप्न पण जाग्रत थतां शमाय ।
तेम विभाव अनादिनो, ज्ञान थतां दूर थाय ।११४॥
छूटे देहाध्यास तो, नहीं कर्ता तुं कर्म ।
नहीं भोवता तुं तेहनो, एज धर्मनो मर्म ॥११॥
एम धर्मथी मोक्ष छे, तुं छे मोक्षस्वरूप ।
अनन्तदर्शन - ज्ञान तुं, अव्याबाधस्वरूप ॥११६॥
शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयं ज्योति सुखधाम ।
बीजूं कहिये केटलुं ? कर विचार तो पाम ॥११७॥
निश्चय सर्वे ज्ञानिनो, भावी अत्र समाय ।
घरी मौनता एम कहि, सहज समाधी मांग ॥११८॥
भद्गुरुना उपदेशथी आयूं अपूर्व पान ।
निजपद निजाही लां, दूर थयु अजान ॥११९॥
भास्यु निजस्वरूप ते, शुद्ध चेतनारूप ।
अजर, अमर, अविनाशी ने देहातीत-स्वरूप १२०॥
कर्ता, भोक्ता कर्मनी, विभाव वर्ते व्याय।
वृत्ति वही निजभावां, थयो अकर्ता त्या य ॥१२१॥
अथवा निज परिणाम जे शुद्धचेतनारूप ।
कर्ता, भोक्त्ता तेहनो, निर्विकल्पस्वरूप ॥१२२॥
मोक्ष कह्यो निजशुद्धता, ते पामे ते पंथ ।
समजाव्यो संक्षेपमा, सकल मार्ग निर्ग्रन्थ ॥१२३॥
अहो ! अहो ! श्रीसद्गुरु करुणासिन्धु अपार ।
आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो! अहो उपकार॥१२४॥
शुं प्रभुचरण कने धंरूं ? आत्माथी सौ हीन ।
ते तो प्रभुए आपियो, वर्तुं चरणाधीन ॥१२५॥
आ देहादी आजथी वर्तो प्रभु - आधीन ।
दास, दास, हुं दास छु; देह प्रभुनो दीन ॥१२६॥
षट्स्थानक समजावि ने, भिन्न बताव्यो आप ।
म्यानथकी तरवारवत्, ए उपकार अमाप ॥१२७॥
दर्शन षटे समाय छे, आ षट्स्थानक मांहि ।
विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न काइ ॥१२८॥
आत्मभ्रान्तिसम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण ।
गुरुआज्ञा-समपथ्य नहि,औषध विचार ध्यान ॥१२९॥
जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थ ।
भयस्थिति आदी नाम लइ, छेदो नहि आत्मार्थ ॥१३०॥
निश्चय वाणी सांभली, साधन तजवां नोय ।
निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय ॥१३१॥
नय निश्चय एकान्तथी, आमां नथी कहेल ।
एकान्ते व्यवहार नहीं, वन्ने साथ रहेल ॥१३२॥
गच्छ-मतनी, जे कल्पना, ते नहि सद्व्यवहार।
भान नहीं निजरूपनुं ते निश्चय नहि सार ॥१३३॥
आगल ज्ञानी थई गया, वर्तमानमा होय ।
थाशे काल भविष्यमां, मार्गभेद नहि कोय ॥१३४॥
सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय ।
सद्गुरु-आज्ञा जिनदशा, निमित्त कारण माय॥१३५॥
उपादाननुं नाम लई, ए जे तजे निमित ।
पामे नहीं सिद्धत्वने, रहे भ्रान्तिमां स्थित ॥१३६॥
मुखथी ज्ञान कथे अने, अन्तर छूट्यो न मोह।
ते पामर प्राणी करे मात्र ज्ञानिनो द्रोह ॥१३७॥
दया, शान्ति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य ।
होय मुमुक्षु घट विषे, एह सदाय सुजाग्य ॥१३८॥
मोहभाव क्षय होय ज्यां, अथवा होय प्रशान्त।
ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी कहिये भ्रान्त ॥१३९॥
सकल जगत् ते एठवत्, अथवा स्वप्न-समान ।
ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी वाचाज्ञान ॥१४०॥
स्थानक पांच विचारी ने, छठे वर्ते जेह ।
पामे स्थानक पांचमुं, एमां नहीं संदेह ॥१४१॥
देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत ।
ते ज्ञानीनां चरणमां, हो वन्दन अगणीत ॥१४२॥
अगर कोई त्रुटी हो तो ' मिच्छामी दुक्कड़म'.
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