Bhaktamar Stotra Shloka-41 With Meaning

Abhishek Jain
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 Bhaktamar Stotra Shloka-41 With Meaning

भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म का महान प्रभावशाली स्तोत्र है । इस स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग ने की थी । इस स्तोत्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई थी , जो इस स्तोत्र की मूल भाषा है, परन्तु यदी आपको संस्कृत नही आती तो आपकी सुविधा के लिए Bhaktamar Stotra के श्र्लोको (Shloka) को हमने मूल अर्थ के साथ - साथ हिन्दी में अनुवादित करते हुये उसका अर्थ भी दिया है , साथ हि साथ जिन लोगो को English आती है और संस्कृत नही पढ सकते वह सधार्मिक बंधु भी English मे Bhaktamar stotra का पाठ कर सकते है । इस प्रकार से Bhaktamar Stotra Shloka-41 With Meaning की सहायता से आप आसानी से इस स्तोत्र का पाठ कर सकते है ।

चाहे भाषा कोई भी हो हमारी वाणी से श्री आदीनाथ प्रभु का गुणगाण होना चाहिए । नित्य प्रातः काल मे पूर्ण शुद्धता के साथ श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ अवश्य करें ।

Bhaktamar Stotra Shloka-41

 Bhaktamar Stotra Shloka - 41

सर्प विष निवारक

(In Sanskrit)

रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,

क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतंतम् ।

आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त-शंकस्-

त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस ॥41॥

(In English)

raktekshanam samadakokila - kanthanilam,

krodhoddhatam phaninamutphanamapatantam |

akramati kramayugena nirastashankas -

tvannama nagadamani hridi yasya punsah || 41 ||

Explanation (English)

O Greatest of the greatest! A devotee who has absorbed 

the antibody of your devout name crosses fearlessly 

over an extremely venomous snake that has red eyes, 

black body, unpleasant appearance and raised hood. 

(Your devotee are not frightened of snakes.)

(हिन्दी में )

कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलंता |

रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता ||

फण को ऊँचा करे वेगि ही सन्मुख धाया |

तव जन होय नि:शंक देख फणपति को आया ||

जो चाँपे निज पग-तले, व्यापे विष न लगार |

नाग-दमनि तुम नाम की, है जिनके आधार ||४१||

(भक्तामर स्तोत्र के 41 वें श्लोक का अर्थ )

जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है |


" भगवान ऋषभदेव जी की जय "


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