Bhaktamar Stotra Shloka-27 With Meaning

Abhishek Jain
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  Bhaktamar Stotra Shloka-27 With Meaning

भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म का महान प्रभावशाली स्तोत्र है । इस स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग ने की थी । इस स्तोत्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई थी , जो इस स्तोत्र की मूल भाषा है, परन्तु यदी आपको संस्कृत नही आती तो आपकी सुविधा के लिए Bhaktamar Stotra के श्र्लोको (Shloka) को हमने मूल अर्थ के साथ - साथ हिन्दी में अनुवादित करते हुये उसका अर्थ भी दिया है , साथ हि साथ जिन लोगो को English आती है और संस्कृत नही पढ सकते वह सधार्मिक बंधु भी English मे Bhaktamar stotra का पाठ कर सकते है । इस प्रकार से Bhaktamar Stotra Shloka-27 With Meaning की सहायता से आप आसानी से इस स्तोत्र का पाठ कर सकते है ।

चाहे भाषा कोई भी हो हमारी वाणी से श्री आदीनाथ प्रभु का गुणगाण होना चाहिए । नित्य प्रातः काल मे पूर्ण शुद्धता के साथ श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ अवश्य करें ।

Bhaktamar Stotra Shloka-27

Bhaktamar Stotra Shloka - 27

शत्रुकृत-हानि निरोधक

(In Sanskrit)

को विस्मयोत्र यदि नाम गुणैरशेषै,

स्त्वं संश्रितो निरवकाश-तया मुनीश ।

दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वैः,

स्वप्नांतरेपि न कदाचिद-पीक्षितोसि ॥27।।

(In English)

ko vismayoatra yadi nama gunairasheshais -

tvam sanshrito niravakashataya munisha!

doshairupatta vividhashraya jatagarvaih,

svapnantareapi na kadachidapikshitoasi || 27 ||

Explanation (English)

O Supreme ! It is not surprising that all the virtues 

have been packed into you, leaving no place for vices. 

The vices have appeared in other beings. Elated by the 

false pride, they drift away and do not draw closer to 

you even in their dream.

(हिन्दी में )

तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्व करि तुम परिहरे |

और देव-गण आश्रय पाय,स्वप्न न देखे तुम फिर आय ||२७||

(भक्तामर स्तोत्र के 27वें श्लोक का अर्थ )

हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?


" भगवान ऋषभदेव जी की जय "

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