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प्रभु शांतीनाथ जी इस काल के पहले ऐसे तीर्थंकर थे जो तीर्थंकर होने के साथ - साथ चक्रवर्ती भी थे । प्रभु शांतिनाथ जैन धर्म में वर्णित 12 चक्रवर्तियो में सें पांचवें (5वें) चक्रवर्ती थे ।
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प्रभु शांतीनाथ जी की आयु 1,00,000 वर्ष थी तथा प्रभु की देह का आकार 40 धनुष था । प्रभु शांतिनाथ ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन दीक्षा ग्रहण की थी , दीक्षा कल्यणक के साथ ही प्रभु को मनः पर्व ज्ञान की प्राप्ती हुई । प्रभु शांतिनाथ जी का साधना काल 16 वर्ष का था ।
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इन 16 वर्षो की साधना में प्रभु ने जन्म जन्मांतरो से चले आ रहे अपने घाती कर्मो (अष्ट कर्मो में सें चार कर्म ) का अंत कर पौष शुक्ल दशमी के दिन निर्मल कैवलय ज्ञान की प्राप्ती की । कैवलय ज्ञान के साथ ही प्रभु अरिहंत , जिन ,केवली हो गये । इसके पश्चात् प्रभु ने चार तीर्थं (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) की स्थापना की तथा स्वयं तीर्थंकर कहलाये ।
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प्रभु का संघ बहुत ही सुदृढ़ और विशाल था । प्रभु शांतिनाथ जी के 62 गणधर थे । प्रभु शांतिनाथ जी के प्रथम गणधर का नाम चक्रयुद्ध था । प्रभु के समवशरण में चार हजार केवली थे । प्रभु के यक्ष का नाम गरुड देव तथा यक्षिणी का नाम महामानसी देवी था ।
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प्रभु शांतिनाथ ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सम्मेद शिखर जी से निर्वाण प्राप्त किया , प्रभु के निर्वाण प्राप्त करते हि प्रभु ने अष्ट कर्मो का क्षय कर 'सिद्ध' कहालाये ।
" नमो सिद्धाणं "
॥ इति ॥
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