प्रभु शांतीनाथ जी के बाद प्रभु कुंथुनाथ जी दुसरे ऐसे तीर्थंकर थे जो तीर्थंकर होने के साथ - साथ उसी जन्म में चक्रवर्ती भी थे ।
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प्रभु कुंथुनांथ जी जैन धर्म में वर्णित 12 चक्रवर्तियो में से 6ठें चक्रवर्ती थे ।
प्रभु कुंथुनाथ जी की आयु 95,000 वर्ष थी तथा प्रभु की देह का आकार 35 धनुष का था। प्रभु कुंथुनाथ जी ने वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन दीक्षा ग्रहण की तथा 16 वर्षों तक कठोर साधना की।
16 वर्षों के पश्चात् प्रभु को चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन निर्मल कैवलय ज्ञान की प्राप्ति हो गई , इसके पश्चात प्रभु ने चार तीर्थ की स्थापना की और स्वयं तीर्थंकर कहलाये। प्रभु ने सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह का चुर्तयाम धर्म का उपदेश दिया ।
प्रभु का संघ बहुत विशाल था , प्रभु के संघ में 35 गणधर थे जिनमे से स्वयंभू नाम के गणधर प्रथम थे । प्रभु के यक्ष का नाम गन्धर्व तथा यक्षिणी का नाम बाला (जयादेवी) था । प्रभु ने अपनी आयुष पूर्ण कर वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन अपने समस्त कर्मो का क्षय कर सम्मेद शिखरजी से निर्वाण प्राप्त किया ।
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" जय प्रभु कुंथुनाथ जी "
॥ इति ॥
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