भगवान महावीर की साधना सत्य की साधना थी। भगवान महावीर की साधना 12 वर्षों तक चली, प्रभु महावीर की इस साधना काल के दौरान, न जाने कितने ही भयंकर उपसर्गों को सहा। इन्हीं उपसर्गों में से 1 उपसर्ग संगम देव का उपसर्ग था । जिसने एक ही रात में 20 उपसर्ग प्रभु महावीर को दिए थे। यही नहीं उसने 6 माह तक, प्रभु को कष्ट दिया। कभी चोरी का अरोप लगाया, कभी असहनीय पीड़ा उत्पन्न की, क्या थी संगम देव की कहानी ? जानिए इस कहानी के माध्यम से -
इन्द्र देव द्वारा प्रभु महावीर की प्रशंसा-
भगवान महावीर स्वामी ने सानुलठ्ठिय से दृढ़ भूमि की ओर प्रस्थान किया। पढ़ाल उद्यान में अवस्थित पोलास चैत्य में त्रिदिवसीय उपवास कर कायोत्सर्ग मुद्रा की।
भगवान की के अपूर्व एकाग्रता, कष्ट सहिष्णुता, अद्भुत धैर्य से स्वयं देवराज इन्द्र में भी इनके प्रति अनन्त आस्थाएँ उत्पन्न हुईं, उन्होंने देवसभा में गद्गढ़ स्वरों में महाप्रभु को सश्रद्ध वन्दन करते हुए कहा-"हे प्रभो ! आपका धैर्य, आपका साहस और आपका ध्यान, वस्तुतः अद्वितीय है। मानव क्या शक्तिशाली देव और दैत्य भी आपको अपनी साधना से कदापि विचलित.नहीं कर सकते।"
देवराज इन्द्र की भावना तथा स्तवना का सम्पूर्ण सभा ने जयघोष के साथ अनुमोदन किया।
संगम देव की ईर्ष्या-
देवगण विस्मयविमुग्ध हुए किन्तु एक मानव की इतनी प्रशंसा संगम नामक देव सहन नहीं कर सका। उसके अन्तर्मन में ईर्ष्या की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। उसे अपनी दिव्य देव शक्ति पर नितान्त गर्व था। उसने विरोध की भाषा में कहा-"अस्थि मजा का पिण्ड देव सृष्टि के वन्दनीय नहीं हो सकता।" वह भगवान को साधना मार्ग से चलायमान करने की दृष्टि से देवेन्द्र का वचन लेकर कुविचार धारण कर पृथ्वी-तल पर वहीं पहुँचा जहाँ प्रभु महाप्रभु ध्यानलीन थे। सूर्यास्त का समय था , वायुमण्डल नितान्त प्रशान्त एवं सहज सुखद आभासित हो रहा था । थोड़े ही समय पश्चात् रात्री हो गई।
संगम देव का मायाजाल-
अनायास ही संगम देव ने उपसर्गो का महाजाल रचा, सारा परिवेश उपद्रव परिग्रस्त हो उठा, समग्र दिशाओं से भयावह प्रेत ध्वनि आने लगी, प्रकृति ने विकृति का रूप धारण कर लिया, प्रचण्ड प्रलय उपस्थित कर दिया। संगम देव ने महाप्रभु के सुन्दर शरीर के रोम-रोम में महापीड़ा समुत्पन्न कर दी पर सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति महाप्रभु जना प्रतिकूल उपसर्गों से प्रकम्पित नहीं हुए तब अनुकूल उपसर्ग इस रूप में प्रस्तुत किए।
प्रलोभन के मन मोहक परिदृश्य उपस्थित किए, विषय वासना की हृदय हारिणी लीलाएँ प्रारम्भ की, आकाश मण्डल से तरुण-सुन्दरियाँ अवतरित हुईं, हाव, भाव और कटाक्ष करती हुई प्रभु से कामयाचना करने लगी, पर अनुत्तर ध्यान-योगी प्रस्तर मूर्ति के सदृश्य निष्प्रकम्प थे, उन पर कोई प्रभाव अंकित नहीं हुआ, उनकी अपार, अतुल सहनशीलता से समग्र यातनाएँ दमित एवं विफल हो रही थीं,उनके प्रशान्त तेजोदिप्त आनन मंडल पर विषाद की एक विरल रेखा भी दृष्टिगत नहीं हो रही थी, वे अपनी साधना में सुमेरू सदृश्य सर्वथा अचल रहे। स्पष्टतः यह दुष्टात्मा संगम की पराजय ही थी, किन्तु वह इतनी शीघ्रता से अपनी विफलता कैसे स्वीकार कर लेता ?
संगम देव के उपसर्ग-
इस प्रकार एक ही रात्रि में भयंकर से भयंकर उपसर्ग देने पर भी महाप्रभु पर इन सबका कोई प्रभाव अंकित नहीं हुआ। अध्यात्म साधना से विचलित होना दूर रहा किन्तु उनका ध्यान भी इत:स्तत भ्रमित नहीं हो पाया। उनका मुख मण्डल कुन्दन के सदृश्य इस रूप में चमक रहा था, जिस रूप में मध्याह्न का सूर्य अपनी सहस्र-सहस्र रश्मियों से रहा हो।
विचारनीय प्रश्न का सहज उत्तर-
एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि संगम देव ने अनेक रूप बनाकर महाप्रभु के शरीर को जर्जरित और घावयुक्त बना दिया, वे सारे घाव किस प्रकार मिट गए ? उक्त प्रश्न के प्रत्युत्तर में यही कथन यथार्थपूर्ण है कि तीर्थंकर के शरीर में एक विशिष्ट प्रकार की संरोहण शक्ति होती है, जिसके अचिन्त्य प्रभाव से उनके शरीर के घाव बहुत ही शीघ्रता से भर जाते हैं। तीर्थंकर महाप्रभु की देह विशिष्ट होती है
(जैसे - चंडकौशिक नाग के दंश प्रहार से प्रभु महावीर के अंगुठे से दूध के समान धवल रक्त का निकलना )
धृष्टात्मा संगम देव
प्रात:काल हुआ, अंधकार समाप्त हुआ, शनैः शनैः ऊषा की लालिमा चमक उठी और सूर्य की प्रकाश-किरणें धरती पर अवतरित हुईं महाप्रभु ध्यान से निवृत्त हुए और अन्यत्र प्रस्थित हुए। यद्यपि आराध्य देव महावीर की अदम्य क्षमता से एक रात्री में ही संगम देव की समग्र आशाओं पर तुषारापात हो गया था, तथापि वह धृष्टात्मा महाप्रभु को व्यथित करने में तन्मय बना रहा और संगम देव ने प्रभु महावीर को कष्ट देना जारी रखा ।
प्रभु महावीर पर चोरी और तस्करी का आरोप-
महाप्रभु ने बालुका, सुभोग, सुच्छेता, मलय और हस्तीशीर्ष प्रभृति नगरों में जब पर्दापण किया तब उसी दुष्टात्मा ने सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति महावीर प्रभु को उत्पीडन दिया।
एकदा जब भगवान महावीर तोसलीग्राम के उपवन में ध्यानलीन थे। तब वहाँ संगमदेव श्रमण वेश धारणकर उसी ग्राम में पहुँचा सुरम्य भवनों में सेंध लगाने लगा, जब वह पकड़ा गया, तब वह बोला -मुझे क्यों पड़कते हो? मैंने गुरु-आज्ञा का अक्षरशः पालन किया है, यदि तुम्हें पकड़ना है , तब चौर्य कला(चोरी की कला) निष्णात मेरे गुरु महावीर को पकड़ो, जो उद्यान में ध्यानस्थ खड़े हैं। उसी क्षण ग्रामवासी जन वहाँ पर पहुँचे और प्रभु महावीर को पकड़ लिया।
उन पर दण्ड प्रहार करने लगे और जब रस्सियों से जकड़ कर ग्राम में ले जाने लगे तब महाभूतिला इन्द्रजालिक ने महाप्रभु को पहचान लिया और ग्रामीण-पुरुषों को उपालम्भ दिया। परिणामस्वरूप वे सर्वजन संगम को पकड़ने हेतु इधर-उधर दौड़े पर वह उन सबके लिए अज्ञात विषय बना रहा।
जब महाप्रभु ने मोसलीग्राम में पदार्पण किया तब उसी पतितात्मा संगम ने वहाँ महाप्रभु पर तस्कर कृत्य का आरोप आरोपित किया। महाप्रभु को पकड़ कर राज्यपरिषद् में उपस्थित किया गया तब वहाँ सम्राट् सिद्धार्थ के स्नेहशील सहयोगी सुभागध राष्ट्रीय अर्थात् प्रान्तीय.अधिपति बैठे हुए थे उन्होंने तत्काल महाप्रभु को सभक्ति अभिवादन किया और उन्हें बन्धन-मुक्त करवाया।
प्रभु महावीर को सूली का दण्ड-
महाश्रमण भगवान ने वहाँ से तोसली ग्राम के उद्यान में पधार कर पुनः ध्यान साधना की। संगमदेव ने चौर्य कृत्य कर के विपुल मात्रा में शस्त्रात्र महाप्रभु के सन्निकट रख दिए। जनता ने चोर समझ कर पकड़ा उनसे परिचय पूछा गया, पर प्रश्न का उत्तर जब प्राप्त हुआ तब तोसली क्षत्रिय ने छद्म वेशी श्रमण समझकर सूली का दण्ड दिया।
सूली के स्थान पर चढ़ाकर कण्ठ में सूली का बंधन डाल दिया और अध: स्थान से काष्ट पट्ट हटाया पर ज्योंहि काष्टपट्ट हटा कि पाश टूट गया, पुन: पाश लगाया गया, मगर वह भी छिन्न-भिन्न हो गया, इस प्रकार सप्तधा पाश टूट जाने पर सर्वजन स्तम्भित से रह गए। क्षत्रिय को सूचित किया गया।उसने प्रभु को कोई महान् पुरुष समझ कर मुक्त कर दिया।
संगम देव द्वारा पुनः चोरी का आरोप-
उसके पश्चात् महाप्रभु ने सिद्धार्थपुर की ओर विहार किया, वहाँ प्रभु ने ध्यान योग की विशिष्ट साधना की, संगम देव ने महाश्रमण पर पुन: चोरी का आरोप लगाकर पकड़वाया पर कौशिक नामक अश्व व्यापारी ने भगवान का परिचय देकर बंधन-विमुक्त करवाया।
संगम देव द्वारा भिक्षा में बाधा उत्पन्न करना-
तदनन्तर महाप्रभु ने वज्रग्राम में पदार्पण किया। उसी दिन पर्व दिवस था, अतएव सर्व गहों में पायस अर्थात खीर बनी थी। भगवान भिक्षार्थ पधारे पर संगम ने सर्वत्र अनेषणीय (संघट्टा) कर दिया। भगवान भिक्षा लिए बिना ही लौट आए। दृष्टात्मा संगमदेव द्वारा अगणित उत्पीड़न का यह क्रम कोई एक माह तक नहीं चला, अपितु छहमास पर्यंत निरन्तर चलता रहा।
संगम देव का हृदय परिवर्तन-
इतनी अधिक उत्पीड़ा सहने पर भी महाप्रभु अपने निर्णीतसाधना पथ से विचलित नहीं हुए अन्तत: संगमदेव का धैर्य अवश्य ध्वस्त हो उठा इतना ही नहीं वह अपने समग्र उपक्रम और पराक्रम में हुई पराजय से हतप्रभ गया।
हताश एवं निराश होकर उसने महाप्रभु से कहा-“हे भगवन्! देवराज इन्द्र ने आपश्री के विषय में जो कहा था, वह पूर्ण सत्य है, मैं भग्न प्रतिज्ञ हूँ आप सत्य प्रतिज्ञ हैं, मैं अब आपकी साधना में किसी भी प्रकार की कोई विघ्न बाधा उपस्थित नहीं करूंगा। मैंने आपको छह माह तक अपार कष्ट पहुँचाया, आपकी साधना में व्यवधान डालने से कर्म किया, किन्तु आप धन्य हैं आपकी साधना निष्कम्प रही। मैं अपना पराभव स्वीकार करता हूँ। आप अब सानन्द साधनारत रहें। मैं जा रहा हूँ।”
प्रभु महावीर की करूणा-
संगम के प्रस्तुत कथन पर भगवान ने प्रसन्नता के साथ कहा-हे संगम! मैं किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर, अथवा किसी को संकल्प में रखकर साधना नहीं करता हूँ। मुझे किसी के आश्वासन-वचन का क्रूर की अपेक्षा नहीं है। इसके अनन्तर करुणा सागर महाप्रभु का हृदय द्रवित हो उठा, उनके लोचन-युगल सजल हुए।
संगम ने यह अनुभव किया कि प्रभुवर आन्तरिक पीड़ा से पीड़ित है। छह मास जो पलकें कभी भी वाष्पार्द्र नहीं हुई, वे आज सहसा कैसे छलक उठीं? उसने सविनय कहा-हे प्रभो! यह क्या? कोई कष्ट है। प्रभुवर ने कहा-हाँ संगम। मुझे कष्ट है।
संगम ने कहा-हे प्रभु ! कहिए न? ऐसी क्या उत्पीड़ा है, जिसका देवी शक्ति द्वारा शमन नहीं किया जा सके। मैं आपके लिए अवनि-अम्बर एक कर सकता हूँ। संगम का दर्प-सर्प फुत्कारें मारने लगा। महाप्रभु ने अतिस्पष्ट किया वे अपनी अपार पीड़ाओं के कारण चलायमान नहीं हैं "हे संगम ! तुमने जो कष्ट दिए हैं, उपसर्गों और उपद्रवों की जो व्यूह-रचना की है, उससे मेरी आत्मा का किंचित् मात्र भी अहित नहीं हो सका है, मुझे जो कष्ट है वह कुछ और ही है।"
संगम ने निवेदन किया-हे प्रभो ! वह कौनसा कष्ट है? प्रभु ने कहा-वह कष्ट यह है कि तुमने अज्ञान अवस्था में मुझे जो उत्पीड़ना पहुँचाई है, विभिन्न प्रकार के दुर्विकल्प निकृष्ट आचरण और रौद्र भावों से तुम्हारी आत्मा का कितना अधिक अध:पतन हुआ है, जब मैं तुम्हारे अन्धाकाराच्छादित अनागत पर दृष्टिपात करता हूँ, तब मेरा रोम-रोम प्रकम्पित हो उठता है, मेरा हृदय द्रवित हो उठता है, एक अबोध जीव मेरे निमित्त से जघन्य दुष्कर्म बाँध कर कितने कष्ट भोगेगा? कितनी दारुण वेदना पाएगा? मेरे सम्पर्क में आगत आत्माएँ कर्म-मुक्त होती हैं, किन्तु तू मेरे सम्पर्क में आकर कर्म बन्ध कर जा रहा है, तेरे भावी कष्ट की कल्पना से मेरी पलकें सजल हो गई हैं। यथार्थता यह है कि महाप्रभु के ये अश्रु वेदनाद्योतक नहीं अपितु अपार करुणा के प्रतीक थे।
देवराज इन्द्र द्वारा संगम को दंड देना-
संगम देव का अहंकार हिम की भाँति विगलित हो गया, वह महाप्रभु की महानता की गहराई की थाह नहीं पा सका। वह दंड हेतु वह स्वर्ग में प्रस्तुत हुआ उसके भीषण दुष्कृत्य पर देवराज इन्द्र अत्यधिक क्रुद्ध हो उठे उसकी असीम भर्त्सना करते हुए उसे देवलोक से निर्वासित कर दिया।
वह अपनी देवियों के साथ मेरू पर्वत की चूला पर निवास करने लगा। अध्यात्म क्षमता के समक्ष भौतिक शक्ति पराजित हो गई थी। चेतना की जागृति में अध्यात्म सत्ता का अथ से इति तक सम्पूर्णत: कायाकल्प हो.जाता है। फलश्रुति यह रही है कि अन्तर्रात्मा में अगाध-अपार आनन्द का अमृत प्रवाह प्रवाहित होता है।
महाप्रभु महावीर की अहिंसा-
इस प्रकार से प्रभु महावीर ने अपनी करुणा से दुष्ट आत्मा संगम के हृदय में भी ज्ञान की ज्योति जलाई,प्रभु महावीर धरती के जैसी धीरता धारण करते हुए ,मेरु पर्वत के समान धर्म पर अविचल और अडिग रहे प्रभु महावीर ने जन-जन में सत्य और अहिंसा का संदेश प्रसारित किया, धन्य है प्रभु महावीर और धन्य है उनकी अहिंसा ।
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