भगवान महावीर को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की घटना कोई साधारण बात नही थी । प्रभु महावीर की साढ़े बारह (12.5) वर्ष की साधना का फल था यह, साढ़े बारह वर्ष भी नही प्रभु के जन्मो जन्म की यात्रा थी यह, और यह यात्रा अन्नत काल से जारी थी ।
वह नयसार का भव जिसमे प्रभु ने सम्यक्तव ग्रहण किया था , मारिची का भव जिसमे प्रभु ऋषभदेव जी ने मारिची के वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर बनने की घोषणा की थी , प्रभु के नन्दन के भव में उन्होने तीर्थंकर गोत्र के नाम कर्म का बंधन किया था ।
यही यात्रा कैवल्य ज्ञान के रूप में परिणित हुई । धन्य प्रभु महावीर की साधना थी जिसमे उन्होने जन्मो जन्म के चले आ रहे कर्म शत्रुओ का नाश किया और अरिहंत कहलाये ।
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भगवान महावीर के कैवलय का यह प्रसंग जो इस रूप में प्रस्तुत हुआ—भित्र भिन्न क्षेत्र में संचरण विचरण करते हुए अनुपम ज्ञान, अनुपम दर्शन, संयम, अनुपम विहार, अनुपम वीर्य, अनुपम मृदुता, अनुपम सरलता, अनुपम अपरिग्रह भाव, अनुपम क्षमाभाव, अनुपम समिति, अनुपम ब्रह्मचर्य, अनुपम तप, अनुपम सत्य, प्रभृति सद्गुणों से आत्मा को भावित करते हुए भगवान महावीर को द्वादश वर्ष और त्रयोदश पक्ष पूर्ण हुए।
महाप्रभु मध्यमपावा से प्रस्थान कर जम्भियग्राम के निकट ऋजुबालका नदी के तट पर उद्यान के निकट स्यामाक् नामक गाथापति के क्षेत्र में शाल वृक्ष तले गौदोहन आसन में श्रमण प्रभु आतापना ले रहे थे।
वैशाख मास था, शुक्लादशमी के दिन का अन्तिम प्रहर था उस समय षष्ठ भक्त की निर्जल तपश्चर्या चल रही थी, आत्ममंथन अपनी चरमसीमा पर पहुँच रहा था। महाप्रभु ने क्षपक श्रेणी का आरोहण कर शुक्ल ध्यान के द्वितीय चरण में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय इन चतुर्विध घाती कर्मों का क्षय किया और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के योग में केवलज्ञान, केवलदर्शन का अभिनव आलोक आविर्भूत हुआ।
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भगवान महावीर अब जिन और अरिहन्त हुए, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुए। प्रभुवर को केवल्य ज्योति प्राप्त होते ही एक बार अपूर्व प्रकाश से समूचा संसार (स्वर्ग, नर्क )जगमगा उठा, समग्र दिशाएँ प्रशान्त एवं विशुद्ध हो गई थीं।
मन्द-मन्द सुखप्रद पवन गतिशील हो रहा था। देवगण के आसन चलित हुए और वे दिव्य देव-दुन्दुभि का उद्घोष करते हुए श्रमण प्रभु का कैवल्य महोत्सव आयोजित करने हेतु धरा धाम पर अवतरित हुए। प्रभु महावीर की साधना अब पूर्ण हो चुकी थी।
केवल एक कैवलय ज्ञान(विशिष्ट ज्ञान) ही सम्पूर्ण ज्ञान का द्योतक होता है , प्रभु महावीर अब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ज्ञाता दृष्टा बन गये थे । कैवलय ज्ञान की प्राप्ती होते ही महाप्रभु अरिहंत पद पर सुशोभित हुये ।
प्रभु महावीर का प्रथम उपदेश निष्फल हुआ
यह एक शाश्वत नियम है कि जिस स्थान पर केवलज्ञान की उपलब्धि होती है, वहाँ पर तीर्थंकर एक मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं, और धर्मदेशना भी करते हैं, श्रमण महावीर भी एक मुहूर्त तक वहाँ स्थित हुए, देवताओं ने समवसरण की संरचना की, स्फटिक सिंहासनारूढ़, वीतराग महावीर अलौकिक ज्योति से मण्डित थे।
देवगण आनन्दित होने लगे, किन्तु लाभान्वित नहीं हुए; क्योंकि देवता सर्वविरति के योग्य न होने के कारण महाप्रभु ने एक क्षण ही उपदेश दिया, वहाँ पर मनुष्य की उपस्थिति नहीं थी।
अतएव किसी ने भी विरति रूप चारित्र धर्म अंगीकार नहीं किया, इस प्रकार का यह प्रसंग जैन आगम साहित्य में एक आश्चर्य के रूप में अंकित हुआ है अर्थात् महाप्रभु की प्रथम देशना निष्फल हुई, वीतराग प्रभु की जय-जयकार से धरती और अम्बर गुंजरित हो उठा था।
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