द्वितीय तीर्थंकर प्रभुजी अजितनाथ जी |
दीक्षा
साधना काल
प्रभु अजितनाथ के साधनाकाल की अवधी 12 वर्ष थी । प्रभु ने इन 12 वर्षो में अपने समस्त कर्मो का नाश कर दिया , और 4 घनघाती कर्मो का क्षय कर अरिहंत कहलाये ।
भगवान अजितनाथ जी को दीक्षा के पश्चात् सर्वप्रथम दान बह्दत नामक राजा के द्वारा भिक्षा कि प्राप्ती हुई । इस प्रकार से बह्दत प्रथम दानदाता हुआ ।
धर्म कि स्थापना और कैव्लय ज्ञान की प्राप्ती
भगवान अजितनाथ ने अपने 12 वर्ष के साधनाकाल के उपरांत अयोध्या नगरी में पधारे वहाँ प्रभु ने बेले का उपवास किया था, सहस्त्राम्रवन में शाल वृक्ष के नीचे प्रभु निर्मल कैव्लय ज्ञान को पा गये । प्रभु सर्वज्ञ हो गये । प्रभु को जिस दिन कैव्लय ज्ञान हुआ उस दिन पोष सुदी एकादशी थी ।
प्रभु अरिहंत हो गये , इसके पश्चात् प्रभु ने जगत् कल्याणकारी
जैन धर्म का प्रचार किया , और साधु , साध्वी, श्रावक, श्राविका चार तीर्थों कि स्थापना कर तीर्थंकर कहलाये ।
प्रभु के प्रथम गणधर का नाम सिंहसेन था , प्रभु अजितनाथ जी के गणधरो की संख्या 90 थी ।
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