जैन धर्म में तीर्थंकर क्या होते हैं ?

Abhishek Jain
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जैन धर्म में तीर्थंकर अरिहंत भगवान होते हैं। तीर्थंकर का अर्थ होता है तीर्थ की स्थापना करने वाला ।
जैन धर्म में साधु , साध्वी, श्रावक, श्राविका ये चार तीर्थ की स्थापना करने के कारण तीर्थंकर कहलाते है।


जब प्रभु कैवलय ज्ञान प्राप्त करते है तब वह सर्वज्ञ हो जाते है, वे अपने चार घनघाती कर्मो का क्षय कर अरिहंत कहलाते है ।
उसके पश्चात वह धर्म की स्थापना के लिए उपदेश देते है ।

प्रभु द्वारा प्रतिपादित धर्म में जो गृहत्याग कर कठोर धर्म के पालन का प्रण लेता है तो वह पुरूष साधु तथा महिला साध्वी कहलाती है । इसी प्रकार जो गृहस्थ धर्म में रहकर हि मध्यम प्रकार से धर्म का मार्ग चुनता है तो जिन का वह अनुयायी अगर पुरुष है तो श्रावक और स्त्री है तो श्राविका कहलाती है ।

इस प्रकार से तीर्थंकर महाप्रभु दो प्रकार के धर्म का प्रतिपादन करते है।
1. साधु धर्म
2. श्रावक धर्म

इस प्रकार इन तीर्थ कि स्थापना करने के कारण वह तीर्थंकर कहलाते है । तीर्थ अर्थात्‌ स्वयं तरने में समर्थ ।
जब तीर्थंकर महाप्रभु अपने समस्त कर्मो का क्षय कर लेते है तो वह निवार्ण को प्राप्त होते है अर्थात् सिद्ध भगवान कहलाते है ।


उदाहरण - वर्तमान में तीर्थंकर महाप्रभु श्री सिंमधर स्वामी जी (महाविदेह क्षेत्र) अरिहंत भगवान है , और प्रभु महावीर निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध भगवान हो गये है अर्थात् तीर्थंकर की जीवित अवस्था अरिहंत है , और निर्वाण प्राप्त अवस्था सिद्ध भगवान की है।

तीर्थंकर जैन धर्म के धर्म संस्थापक होते है, एक कालक्रम में 24 तीर्थंकर होते है । वर्तमान काल में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी तथा 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी जी है ।

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